Monday, 22 July 2019

यूँ ही थोड़ी उलटबाँसी /गूढबानी

हमारे देश में फलों का राजा आम है।
यह तो हम सबको ही बखूबी पता है।
मगर देश की अवाम,यानी"आम"जन को।
असल वो ही"राजा"है,ये कहां जरा पता है।कुछ आम लोग,जिनको यह सब पता है।
वस्तुतः उन्हें भी कहाँ,मन से यह लगा है।यद्यपि सरकार,विपक्ष और उसके चाटूकार।
भरना चाहते हैं आपमें,गहरा आत्म-विश्वास।
मगर पारे सा ये विश्वास,तो फिसल जाता है। और डर,भय या किसी भी अन्य वजह से। स्वीकार ही नहीं पाता,कि वोअसल राजा है।
जबकि अन्य देशमें,क्योंकि होता नहीं आम।
तो वहाँ हर आम,स्वतः ही हो जाता है खास।
वहीं अपने यहां तो,हर जगह,हर एक कोई।
सर्व सुलभ पेटभरवा,पिलपिला सा आम है। रही बात हरे की,तो वो कोई तोड़ न सकता।क्योंकि उसमें कल की,मिठास बड़ी छुपी है।
सो वोभी स्वतःप्रायः,ढीठ सा झड़ता नहीं है।
यूँ तूफान से कुछ,हरी अमियाँ टूट जाती हैं।
जो ठोक-पीट,बतौर चटनी स्वाद बढ़ाती हैं। हाँ यहाँ भी एक वर्ग है,जो बड़ा हीविशिष्ट है। फिर चाहे भ्रम में आप,उसे आम ही मान लें।
क्योंकि आपको अपने,विश्व के सबसे बड़े। लोकतंत्र के"आम"होने पर,बड़ा गुमान है। लेकिन यहां तो,लोक ही का असल तंत्र है। एक से बढ़कर एक,रहस्यमयी चौदह लोक।
जो दिखते हैं एकमात्र,बस हमारे ही राष्ट्र से।
प्रत्येक लोक के रहस्य को,समझना-बूझना।एक बड़ा ही क्लिष्ट,जटिल मनोविज्ञान है।
तभी तो वो सभी जो,खास और विशिष्ट हैं।
प्राप्त करने,संपूर्ण लोक के अधिकार को।
रखते हैं पास,स्वयंसिद्ध-तन्त्र अधिकार को।
और ये तन्त्र और कुछ नहीं,बस कुंजियाँ हैं।जो खोलती हैं प्रत्येक,लोक के रहस्य को।
सो ये विशिष्ट लोग,हांसिल करने कुंजियाँ।
देते वरीयता-आपस में,एकमात्र चुनाव को।
और अपना देवत्व पुजाने,जिह्वा तृप्त करने। बलि देते स्वाथॆवश अमृत रसमयी आम को।
वहीं बरगलाने को कहते-रहते हर आम को।
तू ही हैअसल नृप जो संभाले लोकतन्त्र को।
@नलिन#तारकेश

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