Wednesday 28 February 2018

उनसे जब नैन लगे मेरे

देह मन महकने लगे मेरे ।
उनसे जब नैन लगे मेरे।।

प्रीत का रंग कुछ ऐसा बहा।
पंख फड़फड़ाने लगे मेरे।।

दूरियों की मुश्किलें कहां गिनीं।
हौसले नभ चूमने लगे मेरे।।

मिलेंगे कभी तो क्या कहूंगा।
सोच यही पड़ने लगे मेरे।।

हर तरफ उनके नाम की धूम है।
साथ तभी भाव बढ़ने लगे मेरे।।

तुम भी रहो "उस्ताद" राम के भरोसे।
काम होंगे जैसे होने लगे मेरे।।

@नलिन #उस्ताद

Tuesday 27 February 2018

कस्तूरी का सैलाब

कस्तूरी का सैलाब उसके भीतर बह रहा था।
मगर बांवला सा वो सूखा भटक रहा था।।

जूही,चम्पा,चमेली सुगबुगा रहीं कुछ ।
रस तो भ्रमर पर गुपचुप ही पी रहा था।।

फागुनी बयार का नशा ऐसा चढ़ा।
जड़,चेतन जगत सब बौरा रहा था।।

आंखों में सुरमई लाल डोरी खींच गई।
बहकते पांव कहां कुछ होश रहा था।।

सौंधी सी माटी का ऑचल मिला तो।
होने को अंकुरित बीज मचल रहा था।

कान में चूॅ चूॅ सुनने की खातिर।
पंछी भी तिनके बटोर रहा था।।

"उस्ताद" तो झरोखे राम के बैठ कर। 
उसके रंगों की माया निहार रहा था।।

@नलिन #तारकेश

गजल-68:मैखाना पी लो

सबको मुबारक हो बहुत नया साल
ॐ卐☪✝☆¤▪ॐ卐☪✝☆▪

जश्न है नए साल का मनाना पी लो।
मिला जो आज अच्छा बहाना पी लो।।

पीना यूं चाहो तो मैखाना पी लो।
नहीं तो एक घूंट बन दीवाना पी लो।।

ये दुनिया भी हंसी है अगर कहो तो।
जो बस सलीका-ए-आशिकाना पी लो।।

ढलकती है आंखों से भी एक मय।
कटेगा सफर ये सुहाना पी लो।।

खुदा की इनायत है हर वक्त बरसती।
खोल मन की आंखे तुम जमाना पी लो।।

मिलेगी बहुत कामयाबी इस जहां में।
गमों का जो तुम कभी पैमाना पी लो।।

चखी"उस्ताद"ने उमर भर ये नायाब  हाला।
जो मस्ती में चाहो संग लड़खड़ाना पी लो।।

@नलिन #उस्ताद

Sunday 25 February 2018

रंग भरी एकादशी

रंगों भरी एकादशी झूम कर आ गई।
लो प्रकृति पुरुष को लुभाने आ गई।।

इंद्रधनुषी रंगों की अनोखी छटा से।
मुबारक हो होली पुकार आ गई।।

लिये हाथ पिचकारी बाल गोपाल सभी। झूमती खिलखिलाती टोलियाॅ आ गई।।

हर तरफ अनोखा एक समाॅ बंध गया।मदमस्त पांव में घुंघरू की थाप आ गई।।

बनी हर गली वृंदावन धाम जो।
आंखन छवि युगल सरकार आ गई।।

है रंगीन मिजाज कुछ हमारा कुमाॅऊ। 
पूष इतवार से तभी होली आ गई।।

अबीर गुलाल मल बोज्यू* के गालन।*भाभी
लल्ला की आंखन चमक आ गई।

हर कोई रंग के नशे में चूर दिख रहा।
बिन पिए "उस्ताद"हमें तो झूम आ गई।।

@ नलिन #उस्ताद

बस प्यार से

कटेगा सफर ये जिंदगी का बस प्यार से।
तुम मुझे मैं तुम्हें सराहूं बस प्यार से।।

रास्ते कठिन हैं प्रश्न भी ढेर सारे।
पाएंगे मंजिल तो हम बस प्यार से।।

वो करता है नफरत यदि तो करता रहे।
दिल में उतर जाऊंगा मैं बस प्यार से।।

दीवारें गिरा दो मजहब की सारी।
अब तो देखो सभी को बस प्यार से।।

अलहदा रंग है बड़ा इस प्यार का।
सतरंगा है जीवन बस प्यार से।।

कहो कैसा गुस्सा कहां कोई झगड़ा।
आओ मिलकर रहे हम बस प्यार से।।

"उस्ताद"कसम है तुम्हें प्यार की।
होंगी अब तो बातें बस प्यार से।।

@नलिन #उस्ताद

Saturday 24 February 2018

कभी तो तुम हंस लिया करो

कभी तो तुम हंस लिया करो।
नैना खिला भी लिया करो।।

दूर की ही सोचती हो हरदम।
पास  मैं भी कभी जी लिया करो।।

खुशियां बाहर नहीं भीतर मिलेंगी।
एक बार अच्छे से ढूंढ लिया करो।।

मां-बाप की बात कुछ तो खास है।
उनकी भी सुन कर देख लिया करो।।

पेड़-पौधे,हवा,कायनात सारी।
कुछ धड़कन इनकी भी सुन लिया करो।।

जो आ पहुंचे हो महफ़िल में तो।
थोड़ी-थोड़ी तुम भी लिया करो।।

"उस्ताद" बने बात तभी सब।
चरण-शरण गुरु जब लिया करो।।

@नलिन #उस्ताद

Friday 23 February 2018

पकड़ के मेरा हाथ उसने बीच भंवर छोड़ दिया

पकड़ के मेरा हाथ उसने बीच भंवर छोड़ दिया।
वो ही सहारा एक था पर बेसहारा छोड़ दिया।।

बहुत पी ली मय अब और कितनी पी लें भला। 
दिखाना असर अपना नशे ने भी छोड़ दिया।।

मंदिर,मस्जिद,चचॆ जाते भला क्यों हम कहो।
खुदा ने भी जब से साथ अपना छोड़ दिया।।

रास्ते अलग-अलग भटकाते हैं अपनी तरह से।
अब तो ये देख हमने घर से निकलना छोड़ दिया।

इतनी अकड़, गुरूर और शोखी कहो किस बात की।
इंसान हो कर भला क्यों इंसानियत को छोड़ दिया।।

हर तरफ रहा अहले करम उसका बिखरा हुआ।
जाने क्यों भला सजदे में झुकना छोड़ दिया।।

अपने में मगरूर हो और पर इल्जाम ठोकता रहा।
नतीजा ये हुआ हर किसी ने तन्हा उसको छोड़ दिया।।

प्यार,दोस्ती,नेकी किस युग की जाने बात रही।
अब किसी से "उस्ताद" हमने बोलना ही छोड़ दिया।।

@नलिन #उस्ताद

Thursday 22 February 2018

हुजूर ये क्या हो गया है #आप को। मर गया गिरगिट भी अब देख #आप को।।

हुजूर ये क्या हो गया है "आप"को।
मर गया गिरगिट भी अब देख "आप"को।।

आंख में थे सपने ना जाने कितने ही।
सौंपा था तख्तोताज तभी तो "आप"को।।

हम जो जानते सच इतने छिछोरे,नीच हो।
आ बैल मुझे मार कहते क्यों "आप"को।।

शर्म,हया,आबरू सब तो बेच दी।
अब बताओ क्या कहें हम"आप"को।।

मसीहा बनने का नाटक तो"आप"खूब किये। छटपटाते हम रह गये मुबारक हो "आप" को।।

तुझे सिवा बस कोसने के बता तो हम करें क्या।
चुना तो था हमीं ने बेईमान "उस्ताद""आप" को।।

@नलिन #उस्ताद

Saturday 17 February 2018

खेलन आए श्याम पिया जी,देखो मो संग होली।

खेलन आए श्याम पिया जी,देखो मो संग होली।
मल-मल आंख निहार रही हूॅ,श्याम छवि मैं भोली।।

मैं ना जानूॅ,जाने कितने,जन्मन को मेरो भाग खुली।
देख छवि सांवरिया ज्यू की,जो है छैल-छबीली।।

हाथन रंग मले केसर और आंखें बड़ी रसीली। जाने कितने रंगों की,पास धरे है झोली।।

झूम-झूम नृत्य करत हैं,संग में बेढब टोली। करत फिरत हैं रास-रचैय्या हम संग हंसी- ठिठोली।।

बलिहारी श्री चरनन की जो, रंग दी मेरी चोली।
सतरंग चुनर घूमी मेरी और संग में पायल बोली।।

अच्छे हैं

हर कोई मिलता है जो भी,तो पूछता है अच्छे हैं?
हम भी दर्द बताते नहीं,बस कहते हैं जी अच्छे हैं।

जरूर कुछ इल्जाम लगाते हैं,दिन अच्छे तो आए ही नहीं।
मानते हैं मगर आम जन,पहले से दिन लाख अच्छे हैं।।

जिधर भी देखो हर जगह घोटालों में मिलता हाथ तुम्हारा है।
अंगूर खाने को नहीं मिलते तो ठीक है कहां से दिन अच्छे हैं।।

माना कि वो गलत होगा कहीं कुछ एक जगह पर।
बात-बात कोसना,दिल से बता तेरे मिजाज अच्छे हैं?

यूॅ तो खुदा भी भला कब कहो खुश कर सका सबको।
"उस्ताद"दिल में हो सुकून तो सब दिन अच्छे हैं।।
@नलिन #उस्ताद।

Friday 16 February 2018

गजल-69:तेरे मिजाज की आवारगी

तेरे मिजाज की आवारगी कैसे कहूं।
तू रखता है कुछ नाराजगी कैसे कहूं।।

बहुत भटका किया राहों मैं इधर-उधर।
साथ मिल जाए ताजिन्दगी कैसे कहूं ।।

फूल ही फूल खिले चमन में हर तरफ।
कांटे पर मिले पेशगी कैसे कहूं।।

प्यार में कैसे-कैसे मुकाम आते हैं।
बता तो इसकी भला बानगी* कैसे कहूं।।
*उपमा

तू है मेरा खुदा तू ही महबूब है।
तू ना समझे तो जिन्दगी कैसे कहूं।।

पूछते हैं मिलने पर सब हाल-चाल मेरे।
ये तो बता दर्दे संजीदगी कैसे कहूं।।

एक तेरा आंचल ही सुकून मुझे देता है। "उस्ताद"है ये तेरी खासगी* कैसे कहूं।।
*राजा या मालिक आदि का

Tuesday 13 February 2018

गतांक से आगे:भाग-6

गतांक से आगे:(भाग-6)#कालचक्र #कर्म #कृपा
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विगत अंक में "कुदरत का फैसला" के माध्यम से जो मुझे संकेत मिला वह संयोग हो, भावनात्मक उछाल हो ऐसा नहीं है। दरअसल मुझे जो लगता है कि भूत,भविष्य, वर्तमान जैसा कुछ है ही नहीं।यह तो हमने अपनी सुविधा के लिए बना लिया है क्योंकि हम "समग्र-काल"को एक रूप में नहीं देख पाते या देख नहीं सकते (प्रायः)।श्री कृष्ण जैसा कर्मयोगी/परमेश्वर जब "दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम्" (11/08) कृपापूवॆक  जीव-"अर्जुन" को अपने कर-स्पर्श या अन्य रूप से "दिव्य-दृष्टि"देता है तो ही यह सब संभव हो पाता है। दरअसल मेरे साथ घटी घटना तो संयोग के रूप में व्याख्यायित की भी जा सकती है लेकिन बावजूद इसके सृष्टि के कुछ गूढ़ रहस्यों के प्रति उसमें चिंतन-मनन के छोटे ही सही, बीज/संकेत तो हैं ही।यह अलग बात है कि हमारी प्राथमिकताएं आज इस पर विचार को समय का अपव्यय मानती हों। लेकिन हमारे ऋषि-मुनियों(आज के संदर्भ में उन्हें प्रकृति की प्रयोगशाला में कार्यरत वैज्ञानिक/अन्वेषक कह सकते हैं)ने इस प्रकार के अनेक प्रयोग किए हैं।और आज भी हम उन से लाभांवित हो रहे हैं। अस्तु।
"यत् पिंडे तत् ब्रह्मांडे" या सरल शब्दों में "कंकर- कंकर में शंकर" जो कहा गया है वह ऐसे ही नहीं कहा गया है।वस्तुतः हमारी नाल ब्रह्मांड से जुड़ी है या अन्योन्याश्रित रूप में ब्रह्मांड की नाल हमसे जुड़ी है।लेकिन बीच में माया का जो ये कोहरा(फाॅग)है उससे मन-मानस पर  प्रतिबिंब धुंधला जाता है।कई बार तो यह कतई गहन काला हो जाता है कि कुछ नजर ही नहीं आता।किसी भक्त ने इसी स्थिति को अपने भजन में कलमबंद कर लिखा है"दिल के दर्पण को सफा कर बैठ एकांत में हरी को ध्यायेगा तो हरी मिल जाएगा,••••सोई परम पद पायेगा।(पंडित भीमसेन जोशी द्वारा गाया एक भजन)तो जैसे-जैसे हमारा हृदय निर्मल,साफ होने लगता है उतनी ही स्पष्ट वह तस्वीर पूरी की पूरी, कायनात की हमारे सम्मुख उतर के आ जाती है।योगी जन जो भूत,भविष्य को देख सकते हैं वह भी अपनी निश्छलता, निमॆलता,पारदर्शिता के चलते ही देख पाते हैं। ऐसी ग्रेविटेशनल फोर्स( एक रूप में,आसान शब्दों में),मुक्त अवस्था में जब कभी हम पहुंच पाते हैं फिर चाहे कुछ ही देर को तो हम जैसे सामान्यजन भी उसे अनुभूत कर पाते हैं।क्योंकि तब हमारा "मैं" संकुचित नहीं रहता। अनंत विस्तार ले लेता है।संवेदनशील प्रेमी, भक्त, रसिक जनों के साथ यह घटना थोड़ा अधिक घट सकती है क्योंकि वे अपने प्रेमी से,वांछित वस्तु/व्यक्ति से गहरा तादात्म्य/लगाव जल्द ही बैठा लेने में सफल रहते हैं ।
हमने,आपने,सभी ने अपने जीवन में कभी ना कभी देखा,सुना,अनुभूत किया होगा कि हमारी मां हमसे दूर रहकर भी हमारी परेशानी/ व्याकुलता के दौरान अपने को इस दौरान बड़ा अनमना सा/फड़फड़ाहट सी स्थिती में पाती रही।निदा फाजली (शायर )ने इसका सटीक चित्रण किया भी है :"मैं रोया परदेस में, भीगा मां का प्यार।दुःख ने दुःख से बात की बिन चिठ्ठी बिन तार"।ऐसा ही हाल प्रेमियों का, भगवान की प्रीत में डूबे भक्तों का होता है। स्त्रियों में खासकर माताओं में यह गुण स्वाभाविक रूप से परिलक्षित होता है।शायद इसलिए और भी (उनकी संवेदनशीलता के कुदरती गुण के अतिरिक्त)क्योंकि नौ माह अपने उदर में निरंतर हमारा पालन पोषण करने के कारण उनका हमारे तन-मन से गहरा तादात्म्य हो जाता है,एकरूपता हो जाती है।जिसे हम सिंक होना भी कह सकते हैं ।अभी 2 वर्ष पूर्व मेरी मां के देहांत की अर्धरात्रि बब्बी,(बड़ी भाभी जी की मां )को ऐसा स्पष्ट आभास हुआ कि मां उनके सम्मुख खड़ी हो विदा लेने आई है। उन्होंने पूछा भी कि बिना चप्पल पहने कहां जा रही हो पर माॅ ने जवाब नहीं दिया।वह तो उनके दर्शन हेतु ही गईं थी।असल में दोनों की प्रीति एक दूसरे के प्रति गहरी थी।सो इस तरह का संकेत मिलना कोई बहुत विलक्षण नहीं। प्रकृति तो सदैव प्रेम से,भाव से,विश्वास से ही चलती आई है। प्रेम अपना आकार जितना व्यापक करता जाता है प्रकृति/कुदरत/कायनात भी उतना ही नतमस्तक हो हमें हमारी झोली में ऐसे अनमोल कृपा के अबूझ रत्नों की जगमगाहट से चमत्कृत करती रहती है।प्रकृति तो अन्नपूर्णा है।जगत जननी है। माॅ ही अपने शिशु को वात्सल्यवश अपने आंचल में छुपा पौष्टिक अमृतमई दुग्धपान कराती है। तभी उसे जगत के रहस्य को अनावृत करने, उन्हें बूझने की विवेकपूर्ण दृष्टि मिलती है।इसलिए ही शंकराचार्य जी ने कहा "कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति" जय मां भवानी। कम्रशः ••••••••••••

@नलिन #तारकेश(12/02/2018)

गतांक सेआगे:(भाग-5)#कालचक्र #कर्म #कृपा

गतांक सेआगे:(भाग-5)#कालचक्र #कर्म #कृपा
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ज्योतिष संकेतों का विज्ञान है।जीवन पथ का रोड मैप।इसको सही रूप में समझते हुए हम अपने जीवन को बहुत सहजता से जी सकते हैं।खासतौर से कठिनाइयों के दौर में।जब हम जीवन में आने वाले झंझावतों को स्वीकार कर शान्तचित्त याने"कूल"रहते हैं,उसे स्वीकार लेते हैं तो समझिए आधे से अधिक मुश्किलें तो उसी क्षण समाप्त हो जाती हैं। "स्वीकारना" एक बहुत बड़ा एसेट है।अपनी कमियों को स्वीकारने से हम अधिक बेहतर दृष्टि से अपने भविष्य का आकलन कर सकते हैं और उसे बेहतर दिशा में मोड़ सकते हैं।हमारे जीवन में आने का उद्देश्य क्या है?किस तरह के क्रियाकलाप हमारे व्यक्तित्व के अनुरूप हैं और हमें कहां किस क्षेत्र में अधिक संभावना है आदि-आदि अनेक बिंदु हैं जिस पर ज्योतिष विद्या अपने आलोक से हमारी एक अच्छी मार्गदर्शक बन जाती है। सबसे बड़ी बात यह हमें आशावान बनाती है। अंधेरी गुफा में चलते हुए हमें रोशनी की किरणों के प्रति आश्वस्त करने वाली विद्या है यह। दूसरे यह हमें एक बेहतरीन सीख जो तुलसीदास जी के शब्दों में "कोउ ना काहू को सुख दुख कर दाता,निज कृत करम भोग सब भ्राता" या गीता जी के शब्दों में "जैसा कर्म करेगा वैसा फल देगा भगवान" भी देती है।अब ऐसे में दूसरे के प्रति हम रोष कैसे करें और तो और ईश्वर पर भी आरोप-प्रत्यारोप किस मुंह से लगाएं। सूर्य, चंद्र, मंगल, राहु आदि नवग्रह तो मात्र एक प्रतीक हैं हमारे पूर्व,वर्तमान और भविष्य के कर्मों का लेखा-जोखा रखने वाले और अपनी-अपनी दशाओं में उन्हें निर्विकार भाव से उसे हम तक पहुंचा देने वाले। ना तो वो कठोर हैं ना उदार।वे तो जो फल हमारे जन्मांग में लेकर उतरे हैं उनका समस्त दायित्व तो अपने कर्मों से हमने स्वयं ही रचा है।हां,अब भविष्य में उनकी शुभ या वक्र दृष्टि का ज्ञान हमें यदि ज्योतिष विद्या के द्वारा हो रहा है तो अवश्य ही कुछ हद तक और कभी पूर्णरुपेण भी (जिसकी जानकारी यह गूढ विषय दे सकता है )उससे उबरने के लिए हमें कृत संकल्प हो सकते हैं।
ज्योतिष और तंत्र-मंत्र विद्या पर मेरा प्रारंभिक रुझान अपने मौसा जी स्वर्गीय हरिनंदन जोशी जी के माध्यम से हुआ।दरअसल उनका (सेवानिवृत्ति के पश्चात)जाड़ों में प्रत्येक वषॆ  अल्मोड़ा से आकर लंबे समय तक हमारे घर में प्रवास करना इस में मददगार बना। लोग अपनी समस्याओं के निदान हेतु और जन्म पत्रिका पर विचार करने हेतु उनसे मिलने आते रहते थे। मैंने देखा कि लोग उनका बड़ा आदर-सम्मान करते। यथासंभव  धन एवं भेंट आदि भी देते थे।वैसे मैंने उन्हें धन को महत्व देते कभी नहीं देखा।देवी की उपासना उन्हें अत्यंत प्रिय थी ।अतः "दुर्गा-सप्तशती"का पाठ वे नित्यप्रति करते थे।जान-पहचान या किसी अपरिचित के घर भी जा कर बिना किसी मोह या लालच के वह "दुर्गा-सप्तशती" का पाठ पूरे भाव से करते थे ।उनके पास अपने गुरु कृपा प्रसाद से प्राप्त विद्या थी जिसके माध्यम से वह तंत्र मंत्र आदि के द्वारा भी लोगों की समस्याओं का निवारण निःशुल्क रूप से ही करते थे।कोई स्वयं जिद से कुछ दे जाए तो अलग बात थी। उनके स्वभाव में फक्कड़पन और मस्ती साफ झलकती थी। थोड़ा अधिक उम्र में मुझे अपने मामाजी स्वर्गीय भुवन चंद पांडे के विषय में ज्ञात हुआ कि वह भी ज्योतिष को विधिवत प्रोफेशनल तरीके से करते हैं। हालांकि वह भी रिश्तेदारों और अपने परिचितों को निःशुल्क रूप से ही सेवा देते थे। उनका सामाजिक दायरा बहुत बड़ा था।  लखनऊ में महानगर स्थित रामलीला समिति के प्रारंभिक स्थापक के रूप में उनकी अग्रणी भूमिका थी।वे लोगो के विवाह हेतु संबंधित पक्षों को मिलाने में रुचि लेते थे सो "ब्याहकर पांडेज्यू" के रूप में भी जाने जाते थे।तो वहीं लोगों के घरों का निर्माण करने में भी अपनी निःशुल्क सेवाएं देने के चलते "ठेकेदार ज्यू" के नाम से भी प्रसिद्ध रहे।हमारे घर के बनवाने और अग्रजों के विवाह में उनकी महती भूमिका रही। वैसे मिलैट्री में अपनी सेवाएं देने से वो कुछ लोगों में "सूबेदार ज्यू" से भी जाने जाते रहे।कुछ समय आप महर्षि  महेश योगी के एक प्रोजेक्ट में बतौर ज्योतिषी अनेक विदेशी शहरों में अपनी भारतीय या कहें "वैदिक-ज्योतिष"का झंडा गाड़ उसे लोकप्रिय बनाने में सफल रहे।मैं अपने  अंतर्मुखी स्वभाव के चलते यूं दोनों से ही बहुत कुछ ज्यादा नहीं सीख पाया।मामा जी को तो एक ज्योतिष असिस्टेंट की जरूरत भी थी लेकिन अपने ढीले-ढाले और अपने में मगन रहने के स्वभाव के चलते मुझे यह लगा कि इतने जुझारू और कर्मठ इंसान के साथ मेरी जुगलबंदी बहुत सफल नहीं रहेगी।कालचक्र या नियति को भी संभवतः यह मंजूर नहीं था क्योंकि मां के जोर देने पर एक दिन अनमना सा गया भी,नई शुरुआत के लिहाज से लेकिन अगले ही दिन पिताजी का स्वर्गवास होने से मामला वहीं शांत होकर रह गया।अपने 26 वें वर्ष में पिता जी की असमय मृत्यु मेरे लिए दुर्भाग्यपूर्ण इसलिए और भी अधिक थी क्योंकि मेरा उनके साथ याराना सा था।उनके साथ लगभग हर माह प्रत्येक रविवार को सैर-सपाटे पर निकल जाना,कुछ ठंडे-गर्म आइटम से पेट पूजा करना और नंदन,लोटपोट,चंपक,पराग,फैंटम जैसी कोई बाल पत्रिका लेकर लौटना सामान्यतः एक नियम सा बन गया था। प्रकृति ने मुझे इस दुःखद घटना का संकेत  उसी दिन दे कर संभवत मुझे हर हालात मैं जीने का हौसला देना चाहा और विधि के विधान के प्रति पूर्ण समर्पण भी सीखाना चाहा होगा,ऐसा मुझे लगता है। पिताजी का स्वास्थ्य कुछ दिन से ढीला था।उन्हें खाने की इच्छा नहीं हो रही थी और गैस की अधिकता से सीने में जकड़न व  बेचैनी लग रही थी तो उन्हें हम डॉक्टर के पास ले जाने लगे।तभी पोस्टमैन मुझे एक लिफाफा दे गया। उसमें मेरा नाम अंकित था। उस उस समय मुझे फुर्सत नहीं थी सो उसे संभाल तुरंत ही हम डॉक्टर के पास दौड़े। लेकिन उसने बिना कुछ हमें बताएं,हिदायत दिए तुरंत बिना देर किए मेडिकल कॉलेज एडमिट कराने को कहा मगर वहां स्कूटर से ले जाने पर बीच रास्ते में ही उनकी मृत्यु हो गई।ऐसा अस्पताल में पता चला।उन्हें दिल का दौरा पड़ा था।बाद में जब एक दिन उस लिफाफे को खोला तो वो एक संपादक का पत्र था।वो अपनी पत्रिका में पाठकों के प्रश्नों को लेकर मुझ से ज्योतिषीय समाधान देने हेतु एक नियमित स्तंभ पर मेरी सहमति के इच्छुक थे।बाद में मैंने उन्हें 2-3 पत्र अपनी सहमति के भेजे भी मगर उनका जवाब नहीं आया।वह आना भी नहीं था शायद,क्योंकि वह मात्र एक संकेत के रूप में था।जो मुझे बाद में समझ में आया क्योंकि उस पत्रिका का नाम ही था "कुदरत का फैसला"।
शेष  पुनः••••••
@नलिन #तारकेश (11/2/2018)

गतांक से आगे:(भाग-7)#कालचक्र #कमॆ #कृपा

गतांक से आगे:(भाग-7)#कालचक्र #कमॆ #कृपा
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"विश्वासं फलति सर्वत्र न विद्या न च पौरुषं" अर्थात ज्ञान, पुरुषाथॆ एक सीमा तक काम करते हैं जबकि विश्वास सदैव फलदायक होता है।वतॆमान में इस दिशा में अनेक शोध,अध्ययन आदि के माध्यम से पूरे वैज्ञानिक तरीके से काम हो रहा है कि यह विश्वास उपजता कैसे है?कैसे यह निबॆल, निस्सहाय में भी जब अंकुरित होता है तो उसमें अदम्य साहस,उत्कट अभिलाषा,प्रबल उत्साह जैसे गुण अपरिमित फल रूप में सहजता पूर्वक उपजाने लगता है।कैसे मरणासन्न अवस्था में, शारीरिक तथा मानसिक गहन विकलता में व्यक्ति अपने विश्वास,आस्था के बलबूते समग्रतः, कायाकल्प प्राप्त कर लेता है। हमारी भारतीय संस्कृति में,वांड्गमय में जैसा कि चलन है सब(हर वस्तु,स्थिती,अवस्था)में ईश्वर के प्रतिकों को स्थापित कर एक अलग तरीके की वैज्ञानिक व्याख्या के साथ,चीजों को जनमानस के सम्मुख उसके प्रयोग/ इस्तेमाल हेतु प्रस्तुत किया जाता है। विश्वास का तत्व भी इससे अछूता नहीं है। जैसा कि रामचरितमानस में तुलसीदास जी सर्वप्रथम "गणेश"अर्थात "विवेक" की उपस्थिति के साथ "भवानी शंकरो वंदे श्रद्धा विश्वास रूपिणौ याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तः स्थमीश्वरम्" का स्मरण/आह्वान करते हैं ।यहां "भवानी"- "श्रद्धा "और "शिव"-"विश्वास" का प्रतीक हैं।श्रद्धा का अर्थ है भाव सो भावपूर्ण(पूरी निष्ठा के साथ) ढंग से विश्वास के प्रति समर्पण से आशय है। श्रद्धा का तत्व सजल अर्थात भावमय इसलिए भी है क्योंकि वह स्त्री तत्त्व (संवेदनशील) है। अतः जब पूरे भाव में डूबकर विश्वास के प्रतीक शिवलिंग जो ब्रह्मांड की ही प्रतिकृति(रिप्लिका)है पूजा जाता है अपने से तादात्म्य या सिंक किया जाता है तो वह आकार लेने लगता है। इलेक्ट्रान,प्रोटान,न्यूट्रान जैसे जो सूक्ष्म तत्व हैं वो कक्षाओं में अपनी उपस्थिति उस तरह अंकित करने लग जाते हैं। संकल्प से ही ब्रह्मांड और उसके भीतर समाहित पदार्थों का अविर्भाव हुआ है यह हमारा विपुल उच्चकोटि का   साहित्य बताता है।डार्विन भी इसी तरह का मगर कुछ  अपरिपक्व (क्रूड) सा सिद्धांत पेश करता है।शिव को अगली ही पंक्तियों में तुलसीदास जी बतौर "गुरू शंकर रूपिणम"के रूप में वंदना करते हैं क्योंकि अब तक विश्वास पक्का रूप ले चुका है और"बोधमय नित्यं"" हो जाने से नित्य ही हर क्षण,हर पल जागृत होता है।
यह जो शिव के पूजन की बात हम निशीथ  काल (झुकी हुई तीक्ष्ण रात्रि)/अष्टम प्रहर में करते हैं तो वह हम अपने जीवन से जोड़कर जब देखते हैं तब करते हैं।वस्तुतः रात्रि हमारे लिए जीव के लिए समस्या है।हमने अपने जीवन में प्रायः देखा है बड़े से बड़े दर्द को भी जहां हम दिन में  इग्नोर कर देते हैं या कहीं उसकी परवाह नहीं करते हैं वहीं छोटे से छोटा दर्द भी हमें रात्रि भर करवट बदलने मे मजबूर कर ही देता है। महाशिवरात्रि हमारे जीवन की सबसे बड़ी रात्रि है। वसंत की ऋतु, गदराई फूलों के मौसम में, फागुनी बयार में मन चंचल होना, बहक जाना स्वाभाविक है।सो उस रात्रि जागरण कर विश्वास को स्थिर कर,अपनी शक्ति के ऊपर स्थापित कर हम सर्वोत्कृष्ट लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं।वरना तो शिव कहां रात्रि से भयभीत हैं। उनके लिए तो हर क्षण प्रकाश ही प्रकाश है आस ही आस है तभी तो वह विश्व की आस,नींव या धूरी हैं।और इस कारण से"यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चंद्रःसर्वत्र वंद्ते"।वक्र अर्थात टेढा,आधा-अधूरा चंद्रमा भी जब विश्वास के आगे समर्पण कर देता है तो उसे ही विश्वास के उच्च शिखर रूपी जटाओं में अलंकृत कर महिमामंडित कर दिया जाता है। ज्योतिष में "चंद्रमा"को "मन" कहा गया है-चंद्रमा मनसो जात: और हमारा यह मन ही हमारे समस्त सुख-दु:ख का नेतृत्व करता है।उन्हें हाॅकता है,आदेश देता है।मन के हारे हार है,मन के जीते जीत लेकिन मजे की बात ये है कि व्यक्ति बहुत ही कम अपने मन को जीत पाता है,नियंत्रित कर सही दिशा दे पाता है।आज के इस आपाधापी वाले युग में जब तन-मन पूणॆतः  मशीनी हो गये हों तब शारीरिक,मानसिक विकृतियाॅ आना स्वाभाविक है।सो ऐसे में शिव का यानि कि विश्वास का ही अवलम्बन एक मात्र निदान है क्योंकि विश्वास (शिव) के शिखर पर  मन रूपी चंद्र निरंतर अपनी कोमल,श्वेत,निष्पाप,रश्मियों को बिखेरता रहता है।विश्वास(शिव) के शिखर की एक अन्य विशिष्टता है कि वहां निर्मल पापमोचनी  गंगा जी स्वयं विष्णु (परमात्मा) की श्री चरण- रज लेकर उतरी हैं सो कहीं अगर उस शिखर पर पहुंच कर एक रत्ती भी मन(चंद्रमा की कांति) में मलिनता आती भी है तो वह ठहरती नहीं बह जाती है।
शिव (विश्वास) इसलिए ही तो योगी हैं, योगियों के योगी,महायोगी हैं।"करालं महाकाल कालं कृपालं"उनमें निस्पृहता है, निर्विकारिता का गहन भाव है और इसी कारण से "देखी रसाल बिटिप बर साखा।तेहि पर चढेउ मदन मन माखा" जब कामदेव लौकिक रस के वृक्ष (आम के वृक्ष) पर  चढ विषम बाण शिव के ह्दय में छोड़ता है तो उसे बिना किसी हिचक के एक क्षण गॅवाते हुए सहज रहते हुए उसको राख कर देते हैं।(1/86-87)यह शिव का ही अद्भुत व्यक्तित्व है। विश्वास की पराकाष्ठा है कि मुझे जो चाहिए वो जब मिल रहा है तो अन्य लौकिक अलौकिक आकर्षण का भला क्या  औचित्य ?सो शिव ऐसे निष्ठुर,निर्मोही ही दिखते हैं।पर दिखते ही हैं,हैं नहीं।बस अभिनय करते हैं।वैसे तो वे आशुतोष (क्षण में प्रसन्न होने वाले) ही हैं।हाॅ,लेकिन जो सत्य है,जो लोक मार्ग है ,श्रुति मागॆ है,प्रवृति मागॆ है उसके वो पहरेदार/रक्षक भी हैं।और इसलिए ही उन्होंने"मर्यादा"पुरुषोत्तम "श्रीराम" को अपना इष्ट बनाया है।तो महाशिवरात्रि के इस पावन पर्व पर हम अपने ऐसे ही विलक्षण,आराध्य विश्वास रूपी शिव का ध्यान,चिंतन-मनन,पूजन-यजन पूर्ण श्रद्धा के साथ करते हैं- "शिवेन सह मोदते" की मंगलकामना के साथ। क्रमशः••••••••

@नलिन #तारकेश (13/02/2018)