Tuesday, 13 February 2018

गतांक से आगे:(भाग-7)#कालचक्र #कमॆ #कृपा

गतांक से आगे:(भाग-7)#कालचक्र #कमॆ #कृपा
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"विश्वासं फलति सर्वत्र न विद्या न च पौरुषं" अर्थात ज्ञान, पुरुषाथॆ एक सीमा तक काम करते हैं जबकि विश्वास सदैव फलदायक होता है।वतॆमान में इस दिशा में अनेक शोध,अध्ययन आदि के माध्यम से पूरे वैज्ञानिक तरीके से काम हो रहा है कि यह विश्वास उपजता कैसे है?कैसे यह निबॆल, निस्सहाय में भी जब अंकुरित होता है तो उसमें अदम्य साहस,उत्कट अभिलाषा,प्रबल उत्साह जैसे गुण अपरिमित फल रूप में सहजता पूर्वक उपजाने लगता है।कैसे मरणासन्न अवस्था में, शारीरिक तथा मानसिक गहन विकलता में व्यक्ति अपने विश्वास,आस्था के बलबूते समग्रतः, कायाकल्प प्राप्त कर लेता है। हमारी भारतीय संस्कृति में,वांड्गमय में जैसा कि चलन है सब(हर वस्तु,स्थिती,अवस्था)में ईश्वर के प्रतिकों को स्थापित कर एक अलग तरीके की वैज्ञानिक व्याख्या के साथ,चीजों को जनमानस के सम्मुख उसके प्रयोग/ इस्तेमाल हेतु प्रस्तुत किया जाता है। विश्वास का तत्व भी इससे अछूता नहीं है। जैसा कि रामचरितमानस में तुलसीदास जी सर्वप्रथम "गणेश"अर्थात "विवेक" की उपस्थिति के साथ "भवानी शंकरो वंदे श्रद्धा विश्वास रूपिणौ याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तः स्थमीश्वरम्" का स्मरण/आह्वान करते हैं ।यहां "भवानी"- "श्रद्धा "और "शिव"-"विश्वास" का प्रतीक हैं।श्रद्धा का अर्थ है भाव सो भावपूर्ण(पूरी निष्ठा के साथ) ढंग से विश्वास के प्रति समर्पण से आशय है। श्रद्धा का तत्व सजल अर्थात भावमय इसलिए भी है क्योंकि वह स्त्री तत्त्व (संवेदनशील) है। अतः जब पूरे भाव में डूबकर विश्वास के प्रतीक शिवलिंग जो ब्रह्मांड की ही प्रतिकृति(रिप्लिका)है पूजा जाता है अपने से तादात्म्य या सिंक किया जाता है तो वह आकार लेने लगता है। इलेक्ट्रान,प्रोटान,न्यूट्रान जैसे जो सूक्ष्म तत्व हैं वो कक्षाओं में अपनी उपस्थिति उस तरह अंकित करने लग जाते हैं। संकल्प से ही ब्रह्मांड और उसके भीतर समाहित पदार्थों का अविर्भाव हुआ है यह हमारा विपुल उच्चकोटि का   साहित्य बताता है।डार्विन भी इसी तरह का मगर कुछ  अपरिपक्व (क्रूड) सा सिद्धांत पेश करता है।शिव को अगली ही पंक्तियों में तुलसीदास जी बतौर "गुरू शंकर रूपिणम"के रूप में वंदना करते हैं क्योंकि अब तक विश्वास पक्का रूप ले चुका है और"बोधमय नित्यं"" हो जाने से नित्य ही हर क्षण,हर पल जागृत होता है।
यह जो शिव के पूजन की बात हम निशीथ  काल (झुकी हुई तीक्ष्ण रात्रि)/अष्टम प्रहर में करते हैं तो वह हम अपने जीवन से जोड़कर जब देखते हैं तब करते हैं।वस्तुतः रात्रि हमारे लिए जीव के लिए समस्या है।हमने अपने जीवन में प्रायः देखा है बड़े से बड़े दर्द को भी जहां हम दिन में  इग्नोर कर देते हैं या कहीं उसकी परवाह नहीं करते हैं वहीं छोटे से छोटा दर्द भी हमें रात्रि भर करवट बदलने मे मजबूर कर ही देता है। महाशिवरात्रि हमारे जीवन की सबसे बड़ी रात्रि है। वसंत की ऋतु, गदराई फूलों के मौसम में, फागुनी बयार में मन चंचल होना, बहक जाना स्वाभाविक है।सो उस रात्रि जागरण कर विश्वास को स्थिर कर,अपनी शक्ति के ऊपर स्थापित कर हम सर्वोत्कृष्ट लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं।वरना तो शिव कहां रात्रि से भयभीत हैं। उनके लिए तो हर क्षण प्रकाश ही प्रकाश है आस ही आस है तभी तो वह विश्व की आस,नींव या धूरी हैं।और इस कारण से"यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चंद्रःसर्वत्र वंद्ते"।वक्र अर्थात टेढा,आधा-अधूरा चंद्रमा भी जब विश्वास के आगे समर्पण कर देता है तो उसे ही विश्वास के उच्च शिखर रूपी जटाओं में अलंकृत कर महिमामंडित कर दिया जाता है। ज्योतिष में "चंद्रमा"को "मन" कहा गया है-चंद्रमा मनसो जात: और हमारा यह मन ही हमारे समस्त सुख-दु:ख का नेतृत्व करता है।उन्हें हाॅकता है,आदेश देता है।मन के हारे हार है,मन के जीते जीत लेकिन मजे की बात ये है कि व्यक्ति बहुत ही कम अपने मन को जीत पाता है,नियंत्रित कर सही दिशा दे पाता है।आज के इस आपाधापी वाले युग में जब तन-मन पूणॆतः  मशीनी हो गये हों तब शारीरिक,मानसिक विकृतियाॅ आना स्वाभाविक है।सो ऐसे में शिव का यानि कि विश्वास का ही अवलम्बन एक मात्र निदान है क्योंकि विश्वास (शिव) के शिखर पर  मन रूपी चंद्र निरंतर अपनी कोमल,श्वेत,निष्पाप,रश्मियों को बिखेरता रहता है।विश्वास(शिव) के शिखर की एक अन्य विशिष्टता है कि वहां निर्मल पापमोचनी  गंगा जी स्वयं विष्णु (परमात्मा) की श्री चरण- रज लेकर उतरी हैं सो कहीं अगर उस शिखर पर पहुंच कर एक रत्ती भी मन(चंद्रमा की कांति) में मलिनता आती भी है तो वह ठहरती नहीं बह जाती है।
शिव (विश्वास) इसलिए ही तो योगी हैं, योगियों के योगी,महायोगी हैं।"करालं महाकाल कालं कृपालं"उनमें निस्पृहता है, निर्विकारिता का गहन भाव है और इसी कारण से "देखी रसाल बिटिप बर साखा।तेहि पर चढेउ मदन मन माखा" जब कामदेव लौकिक रस के वृक्ष (आम के वृक्ष) पर  चढ विषम बाण शिव के ह्दय में छोड़ता है तो उसे बिना किसी हिचक के एक क्षण गॅवाते हुए सहज रहते हुए उसको राख कर देते हैं।(1/86-87)यह शिव का ही अद्भुत व्यक्तित्व है। विश्वास की पराकाष्ठा है कि मुझे जो चाहिए वो जब मिल रहा है तो अन्य लौकिक अलौकिक आकर्षण का भला क्या  औचित्य ?सो शिव ऐसे निष्ठुर,निर्मोही ही दिखते हैं।पर दिखते ही हैं,हैं नहीं।बस अभिनय करते हैं।वैसे तो वे आशुतोष (क्षण में प्रसन्न होने वाले) ही हैं।हाॅ,लेकिन जो सत्य है,जो लोक मार्ग है ,श्रुति मागॆ है,प्रवृति मागॆ है उसके वो पहरेदार/रक्षक भी हैं।और इसलिए ही उन्होंने"मर्यादा"पुरुषोत्तम "श्रीराम" को अपना इष्ट बनाया है।तो महाशिवरात्रि के इस पावन पर्व पर हम अपने ऐसे ही विलक्षण,आराध्य विश्वास रूपी शिव का ध्यान,चिंतन-मनन,पूजन-यजन पूर्ण श्रद्धा के साथ करते हैं- "शिवेन सह मोदते" की मंगलकामना के साथ। क्रमशः••••••••

@नलिन #तारकेश (13/02/2018)

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