Tuesday, 27 February 2018

कस्तूरी का सैलाब

कस्तूरी का सैलाब उसके भीतर बह रहा था।
मगर बांवला सा वो सूखा भटक रहा था।।

जूही,चम्पा,चमेली सुगबुगा रहीं कुछ ।
रस तो भ्रमर पर गुपचुप ही पी रहा था।।

फागुनी बयार का नशा ऐसा चढ़ा।
जड़,चेतन जगत सब बौरा रहा था।।

आंखों में सुरमई लाल डोरी खींच गई।
बहकते पांव कहां कुछ होश रहा था।।

सौंधी सी माटी का ऑचल मिला तो।
होने को अंकुरित बीज मचल रहा था।

कान में चूॅ चूॅ सुनने की खातिर।
पंछी भी तिनके बटोर रहा था।।

"उस्ताद" तो झरोखे राम के बैठ कर। 
उसके रंगों की माया निहार रहा था।।

@नलिन #तारकेश

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