Tuesday 30 January 2018

उड़त अबीर गुलाल लाल भयो अंबर

उड़त अबीर गुलाल लाल भयो अंबर
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यह दुनिया रंग रंगीली है।न जाने कितनेअद्भुत  और विलक्षण सब एक से बढ़कर एक रंग जो अपने में सभी संपूर्ण और अनूठे हैं यहां हमारे आस-पास बिखरे पड़े हैं।कोई किसी रंग का दीवाना है तो कोई किसी एक अलग रंग का लेकिन हैं सभी रंगों के मुरीद।रंगों का जादू सभी पर सिर चढ़कर बोलता है।कोई अपने रंगों पर ही फ़िदा है तो कोई दूसरों के रंगों पर मंत्रमुग्ध।कोई संगीत के रंगों में डूबा है तो कोई साहित्य कला के।कोई प्रकृति के नयनाभिराम विविध रंगों का चितेरा है तो कोई प्रभु के प्रेम रंग से अपने तन-मन की चादर रंग लेने को आतुर दिखता है।
प्रकृति और पुरुष का संवाद भी रंगों के माध्यम से सहज संभव हो जाता है।संभवतः इसी को ध्यान में रखते हुए और रंगों के प्रति अपने स्वाभाविक आकर्षण के चलते मानव ने रंगो के त्यौहार होली की परिकल्पना को मूर्त रुप दिया। शीघ्र ही एक सामाजिक और धार्मिक त्योहार के रूप में होली ने सबका दिल जीत लिया और भारत के प्रायः सभी प्रांतों में यह पूरे जोशो-खरोश से मनाया जाने लगा। होली के दिन जिनकी आपस में बड़ी से बड़ी दुश्मनी होती है वह भी रंगों के साथ मिलकर बह जाती है।फिर छोटी-मोटी नाराजगी और लड़ाई की तो भला क्या बिसात कि वह पास भी फटक सके।इस दिन नोक -झोंक तो जरूर होती है पर वह प्यार स्नेह के रंगों से सराबोर होती है और संबंधों में कोई हल्की दरार या खामी रही होती है तो वह भी इस से भर जाती है।आज के दिन जब व्यक्ति घर से बाहर होली खेलने के लिए निकलता है तो फिर वह यह नहीं देखता कि वह होली के लाल,पीले,हरे••••चटक रंगों को जिसके गले लगा गलबहियाॅ भर रहा है उसका वर्ण, जाति,मजहब क्या है? वह अमीर है या गरीब?शत्रु है या मित्र?वह तो बस रंगोत्सव के खुमार में होता है।अपना,पराया उसे कहां सूझता है।इस दिन तो वह अपने पास मौजूद सारे रंगों को दूसरे पर निछावर कर देना चाहता है और चाहता है दूसरों के रंगों से अपने तन मन को रंग लेना।अब कोई भेद नहीं रहता सब कोई एक रूप हो जाते हैं। रंगों के त्यौहार का यही वो रंग है जो उसे खास बनाता है।उसे हर दिल अजीज बनाता है। पूर्णिमा की रात्रि चलाई जाने वाली आग यज्ञवेदी में निहित अग्नी का प्रतीक है। वैदिक युग में यज्ञवेदी के समीप एक उदुंबर (गूलर) वृक्ष की टहनियाॅ गाड़ी जाती थीं क्योंकि गूलर का फल अत्यंत मीठा होता है।हरीशचंद्रोपाख्यान में कहा गया है कि जो निरंतर चलता रहता है,कर्म में निहित है उसे गूलर के फल खाने को मिलते हैं।चरन् वै मधु विंदेत,चरन्स्वादुमुदुम्बरम् (ऐतरेय ब्राह्मण) खेतों से आया नवीन अन्न इसी अग्नि में हवन करके प्रसाद लेने की परंपरा है। इस अन्न को होला कहते हैं।इसी से इसका नाम होलिकोत्सव पड़ा।होली की है यह अग्नी  ही मानो हमारे संबंधों में किन्ही कारणों से उत्पन्न कटुता को स्वाहा  उसे लील लेने का प्रतीक बनती है और "बीती ताहि बिसार दे आगे की सुधि ले" के साथ नई उष्मा नए उल्लास और  रंगों से जीवन को रंगीन बनाने के लिए पूरी मस्ती से कदमताल कर उठती है।होली में दिखने वाली हंसी-ठिठोली का मूल प्राचीन ग्रंथों में उल्लिखित "अभीगर-अपगर-संवाद" में निहित है।विद्वानों के अनुसार अभीगर ब्राह्मणों को और अपगर शूद्रों को दर्शाता है जिनके बीच आक्षेप, हास्य -व्यंग,कटाक्ष चलते थे और यह सब पूरे दिल खोलकर हास-परिहास हेतु किया जाता था।इसी क्रम में लोग विभिन्न प्रकार की बोलियां खासतौ।र से ग्रामीण बोलियां बोलने का भी प्रदशॆन
लोग करते थे।यह तान्डय ब्राह्मण ग्रंथ से ज्ञात होता है।प्राचीन समय में ही इस दौरान हास-परिहास के साथ राष्ट्र रक्षा के लिए भी जनमानस को जागृत किया जाता था। इस हेतु यज्ञवेदी के चारों ओर शस्त्रास्त्र धारण किए राजपुरुष व सैनिक परिक्रमा करते थे।यह इसलिए भी उपयुक्त लगता है कि कहीं हम हंसी ठिठोली की रौ में बह अपने व अपने राष्ट्र की सुरक्षा को ही ना भूल बैठें।उत्सव और पर्वों का सामाजिक भौगोलिक व अन्य कारण से विकास होता रहता है यही कारण है कि होली जो मूलतः एक वैदिक
सोमयज्ञानुष्ठान था आगे चलकर भक्त प्रहलाद और उनकी बुआ होलिका के कथानक से जुड़ा,"नव-शस्येष्टि"(नई फसल हेतु किए जाने वाला अनुष्ठान)व "मदनोत्सव" से जुड़ा और इस प्रकार विविध रंग रंगीली परंपराओं को अपने में समाहित करते हुए जन-जन का लोकोत्सव बन गया ।

@ नलिन #तारकेश

Monday 29 January 2018

WORLD OF DREAMS

WORLD OF DREAMS
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Some teachers of philosophy call this creation a dream. They say whatever we see,hear and bear are in fact a mirage, an illusion. No doubt,it is very surprising but it is not easy to believe this. That is why by listening to this often we become apathetic. But in this so-  called world of dreams we do see dreams when we sleep. Some people see less dreams and some see more. We remember some dreams and forget others, but dreams stealthily intrude into our sleep. Sometimes they leave such deep impressions on our subconscious mind that we are awakened with a rude shock, what is left is some good or bad memories of the dream. And now starts the search for the meaning of these strange dreams.
Some dreams are coloured and some are in black-and-white. Some dreams are small and some are big. Some can be understood and some define reasoning. Some dreams start from the point where they had been left the previous night like TV serials. My niece (Poshita)has experienced this. She saw a lengthy story in 15 episodes in her dream. What is the base of these dreams? Why do they come? Have they any significance? There are many such questions squirming in human minds since  ages. Now,  research is being conducted to test  their scientific validity. The funny part of this is that behind many scientific inventions these dreams had played a vital role. The inventor of nuclear structure Niels Bohr has written that scientists knew about nuclear presence but they did  not know about the nuclear structure. They conducted many experiments but could not succeed. Then on the basis of a dream they reached the conclusion that it is a nucleus (centre) around which electrons move. Like this a dream gave the birth to the nuclear age. The well known mathematician Henry Feher after collecting facts from the thinking and beliefs of 69 intellectuals reached the  conclusion that out Of 69 mathematicians 51 had solved difficult questions in dreams only. Friedrich August Kekule has explained the chemical composition of benzene on the basis of a dream. Like this Elias Howe was also not satisfied with the invention of sewing machine because stitchings made by his  machine were weak. He made holes in the needle but could not succeed. One day  he saw a dream that some savage people had taken him to their king. The king told him to make a sewing machine and told his man to give him death penalty if he fail to do so. Elias Howe saw the soldiers were carrying big spears which had eye-like holes and as he failed to make a machine for the king, a soldier, acting on the orders of the King, made a hole in his head by throwing a spear. At that moment Elias Howe woke up from his dream. He made a needle with a single hole at one end of it and fitted it in his sewing machine. Like this the sewing machine was invented.
Sometimes it has been seen that dreams come to our aid. People who justify it through their arguments say that when we are deeply engrossed in tackling a problem and go to sleep we get its solution in the dream. According to them dreams are the outcome of our daily activities, our aims and expectations, but such a simple definition of dreams looks  childish, we certainly see dreams which predict our future and we see incidents happening exactly like the ones seen in the dreams.
The former US President Abraham Lincoln's biographer Ward Vamon has written that Lincoln had the premonition of  his murder in a dream. Lincoln had described the incident of his own murder to the writer exactly in the same manner as it had happened. This writer had also premonition of many important events in his real life which were happening then. The famous Russian institute, 'Curt' has conducted many experiments regarding the predictions in dreams. It has been proved that the brain of some individuals get excited by the atoms of the incidence which were to take place in future. The famous actress of West Germany, Kristine Milas is a well-known example of this type of person.  She had seen about 1200 dreams which were connected with one person or the other and the incidents did happen just as in her dreams.
The Indian philosophy is absolutely clear about it that the past, present and the future are  always present in their minute  form in the atmosphere. The person who has developed this power so much that he can come in contact with this minute form while still awake is known as fortune teller or Yogi. He can have the knowledge about the past, present and future. So, a person can have interaction  with his own self and have linked with the minute form. This contact is the medium or the base of the future dream. As a result, when the minute form of our personality comes in contact with  the minute form of the future, its future becomes clear with the help of the medium of the dream. This work is done by awakening or developing the sixth sense. Concentration of mind is required to recognise the power  and it's minute waves and the peseverance to accept it. When the person reaches this stage the world of dream is no more a mystery to him/her.

Saturday 27 January 2018

गतांक से आगे:(भाग-4)#कालचक्र #कमॆ#कृपा

गतांक से आगे:(भाग-4)#कालचक्र #कमॆ#कृपा
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सर्वमान्य नैतिकता का तकाजा है कि कोई व्यक्ति किसी अन्य की वस्तु पर नजर न गड़ाए। खासतौर से अगर वह व्यक्तिगत गिफ्ट सा संवेदनशील मसला हो।पर स्वप्न से अभिभूत उस पर अपना कॉपीराइट मानते हुए मैंने इस बात को नजरअंदाज कर दिया था।यहाॅ प्रशंसा तो भाभी(मुग्धा)जी की करनी होगी जिन्होंने स्त्री स्वभाव के प्रचलित किस्सों के विपरीत इस तरह के स्वाभाविक मोह को सहज ही धराशाई कर दिया।हालांकि यह उस समय तो स्वप्न की भित्ती(दीवार)पर टिका एक अनुमान मात्र था।क्या पता मुझे किसी अन्य से मिलना हो? वैसे अक्सर सपने झूठे भी साबित होते रहते हैं(प्रख्यात साहित्यकार अमृता प्रीतम ने इस विषय पर 2-3 पुस्तकों में स्वतन्त्र रुप से लिखा है।आज स्वप्नविज्ञान के तथ्यात्मक  पहलुओं की खोज में देश-विदेश में अनुसंधान हो रहे हैं,उनकी चरचा फिर कभी )अपने हाथ में तो कुछ था नहीं पर अंतर्मन कहता था कि स्वप्न साकार होगा। अब उनके पार्टी से लौटने का इंतजार बेसब्री से था। भाभीजी जब लौटीं तो उनके जेहन से यह बात निकल चुकी थी। सपना याद दिलाया तो उन्होंने कहा कुछ मिला तो है।मेरी बैग में है देख लो। उसमें देखा तो एक साड़ी थी ।पर वह तो मेरे किसी मतलब की होती नहीं सो उपेक्षा से उसे देखा। पर उसी दृष्टि में एक छोटा सा पर्स भी किसी आभूषण विक्रेता के नाम वाला दिखाई दिया। उसे खोला तो उसमें एक डिब्बी दिखाई दी। इसमें एक कागज से लिपटे बेल-बूटों से सजे चांदी के चमक बिखेरते "चरनपीठ करुणानिधान के।" (जन जुग जामिक प्रजा प्रान के।।संपुट भरत सनेह रतन के। आखर  जुग जनु जीव जतन के।। 2/315/ 5-6 ) झाॅकते दिखे। उन्हें देख मेरे हर्ष का ठिकाना न था।मैंने "श्री चरण पादुका" सभी को दिखाई। सब की बड़ी सुखद प्रतिक्रिया आई, जो बहुत स्वाभाविक थी।भाभी जी ने नेताओं की तरह कोई गफलतबाजी,वादा निभाने में नहीं की और सहषॆ उन्हें मुझे सौंप दिया। करुणानिधान ने पहले स्वप्न संकेत से और फिर कुछ घंटों के भीतर ही वास्तविक रूप में अपने श्री चरणों का अवलम्बन देकर मुझे कृतकृत्य कर दिया।अब यह अलग विषय है कि इतना कुछ होने के बावजूद भी उस घटना के 14 वर्ष बाद भी मेरे अपने "रामजी" वनवास ही भोग रहे हैं।और मैं आजकल के नेताओं से अधिक प्रभावित हो अपने उस "पद-प्रभुत्व"में ही इठलाता फिर रहा हूं। कभी-कभी चुनाव आने पर नेता जैसे पूरे नाटक/अभिनय के साथ युद्ध स्तर पर सेवाभाव में जुटे दिखते हैं वैसे ही अपने अस्तित्व पर संकट के बादल मंडराने पर उनकी झाड़-पौंछ में कुछ देर को लग जाता हूॅ। लेकिन अपने "राम"को वनवास से लाने की कोई उत्कंठा या शीघ्रता फिलहाल दूर-दूर तक नहीं दिखती है।दरअसल इसके पीछे जो सत्कर्म किए जाने की भावना मूल प्रेरणा स्वरुप ईश्वर के द्वारा हम पर होती है उसे नजरअंदाज कर पूर्णरूपेण हम कृपा-याचक बन जाते हैं।यद्यपि इस तरह की प्रेरणा वह प्रत्येक को अलग-अलग रूपों में समय समय पर देता रहता है किंतु हम तो माया के लाउडस्पीकर( डीजे)से आने वाली धुनों पर बहरे हो नाचते-फिरते हैं।ऐसे कि अन्य कोई आवाज/ संकेत से प्राय: अनजान ही बने रहते हैं। वैसे इस मामले में कहूं तो थोड़ा अपने को सौभाग्यशाली मानता हूं कि वह बीच-बीच में अपने संकेतों/इशारों से मेरा ध्यान आकर्षित करता रहता है।ऐसी मेरे प्रति रुचि उसे क्यों है यह तो वह समझे पर इतना बुद्धिजीवी भी उसने बनाया नहीं है की उस पर जाॅच-आयोग बैठाने की सामथ्यॆ रख सकूॅ। वैसे भी वह कब बुद्धि की पकड़ में आता है।कभी लगता है भविष्य के स्वप्न/संकेत/अन्यान्य सिद्धियाँ आदि भी कभी-कभी वो बरगलाने या परीक्षा के लिए ही दे देता है। उसमें ज्यादा उलझना नहीं चाहिए।"मोको कहाॅ ढूंढे रे बन्दे, मैं तो तेरे पास रे" सा वो तो सहज ही निकटस्थ है।हाॅ अब जो मुझे ज्योतिष विद्या का अल्पज्ञान है सो भी सोचता हूं कि वह सिर्फ उसके संकेत/ विचारों को सरलता से समझने के लिए ही दिया गया है। पर यहां तो बात ही उल्टी हुई। खुद तो समझे नहीं पर दूसरों के प्रति ग्रह संकेतों के समझावनलाल बन बैठे।अजीब विडंबना है।लोग भी बौराए हैं। मेरे हाल देखते-भालते,समझते-बुझते भी(खैर बुबुक्षम् किम् न करोति)वो जो मेरे इस क्रियाकलाप से परिचित हैं (वैसे स्वनामधन्य का ज्योतिष परामर्शदाता वाला बोर्ड,खुद ही लगाया है घर पर)भी आ जाते हैं।ग्रहों की दुरूह,वक्री चालों को समझने,शुभ गति देने।और उससे भी मजे की बात प्राय: बेवजह की सराहना/आशीष/स्नेह भी लाद जाते हैं। इसमें अम्मा जी (मेरी माता जी)कुमाॅऊनी में व्यंग भी करती थीं। खासतौर से जब कोई अपने विवाह या अपने बाल-बच्चों/पारिवारिक सदस्यों के विवाह के बारे में मंत्रणा/राय लेने आता था,ग्रहों के संदर्भ में।वो कहती थीं "शिवजी आपूणे उतड़ छन ऊ के तुम्हर भल कर सकनी"!।यहां उनका आशय होता था कि जब यह खुद अविवाहित है तो तुम्हारे या अन्य के विवाह हेतु क्या ज्ञान दे सकता है। वैसे ही जैसे नारद के प्रति सप्तर्षियों ने देवी उमा को समझाया था "सुनत बचन बिहसे रिषय
गिरीसंभव तव देह। नारद कर उपदेसु सुनि कहहु बसेउ किसु गेह।।"(पार्वती जी की बात सुनते ही ऋषि लोग हंस पड़े और बोले- तुम्हारा शरीर पर्वत से ही तो उत्पन्न हुआ है भला कहो तो नारद का उपदेश सुनकर आज तक किसका घर बसा है ? 1/78) क्रमशः

@नलिन #तारकेश (26/1/2018)

Wednesday 24 January 2018

प्राकृतिक चिकित्सा

प्राकृतिक चिकित्सा:सरल सस्ती चिकित्सा
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क्षिति,जल,पावक,गगन,समीरा।पंच तत्व ते अधम शरीरा।।

हमारे शरीर का निर्माण मिट्टी,पानी,अग्नि,
आकाश,वायु इन पांच तत्वों से होता है ऐसी मान्यता रही है। किन्ही कारणों से जब यह संतुलन बिगड़ने लगता है तो शरीर अस्वस्थ हो जाता है।लेकिन इन तत्वों को पुनः सन्तुलित करके काया को रोग मुक्त किया जा सकता है और वह भी बड़ी सरलता,सहजता से बड़े सस्ते में बिना किसी साइड इफेक्ट के।
प्राकृतिक चिकित्सक,जुस्सावाला जे•एम•
अपनी पुस्तक"द की टू नेचर क्योर"में लिखते हैं,'प्राकृतिक चिकित्सा हवा,प्रकाश,जल,ताप तथा अन्य प्राकृतिक तरीकों एवं पद्धतियों द्वारा किसी भी मानव रोग,कष्ट,चोट,विकृति, किसी भी शारीरिक रासायनिक या मानसिक दशा के निदान उपचार एवं उपयोग की सलाह देने की औषधि शास्त्र की एक व्यवस्था है"।दरअसल प्राकृतिक चिकित्सा और कुछ नहीं प्रकृति की आधारभूत विशेषताओं से लाभ उठाने की एक पद्धति है।प्रकृति अपने आप में स्वयं एक चिकित्सक है बस हमें अपनी तरफ से उसके कार्य में सहयोग देना होता है। प्रकृति तो शरीर से नियमित रूप में मल, दूषित पदार्थ तथा विषैले तत्वों को निकालती है लेकिन जब यह हमारे शरीर में अप्राकृतिक जीवन शैली, भोजन आदि के कारण जरूरत से ज्यादा एकत्रित हो जाता है तो यह रोग के रूप में उभरकर सामने आ जाता है।
प्राकृतिक चिकित्सा की विशेषता है कि यह रोग को शत्रु नहीं मित्र मानती है और उसके लक्षणों को दबाकर तात्कालिक लाभ देने के बजाय पूरे शरीर की चिकित्सा करती है और विजातीय पदार्थ या मल को बाहर निकालने में शरीर की प्राकृतिक तरीके से मदद करती है। वस्तुतः प्राकृतिक चिकित्सा एक चिकित्सा पद्धति न होकर एक जीवन पद्धति है जिसका अनुसरण कर व्यक्ति स्वस्थ सुखी तथा प्रसन्न रह सकता है।प्राकृतिक चिकित्सा के द्वारा न केवल सामान्य अपितु जटिल रोगों का उपचार भी संभव है।वैज्ञानिक एवं चिकित्सीय दोनों स्तर पर आज प्रमाणित हो गया है कि यह एक अत्यंत सफल चिकित्सा पद्धति है।आवश्यकता है तो पूरे मन से,ध्यान के साथ इसके परिणाम को देखा जाए क्योंकि यह शरीर को पूरी तरह से निरोग करती है। अतः सामान्यतः कुछ अधिक वक्त लग सकता है।
हिस्ट्री ऑफ़ मेडिसिन एवं एशियाटिक, सन 1805 में प्रकाशित पुस्तक में लिखा है कि आयुर्वेदिक औषधियों का प्रचार कायॆ सबसे पहले भारत में हुआ। ईसा से 400 वर्ष पूर्व ग्रीस के हिपोक्रेटस को प्राकृतिक चिकित्सा का जनक माना जाता है।प्लिनी
के अनुसार पांचवी शताब्दी में रोम में जल स्नान रोग उपचार का महत्पूर्ण तरीका था। मध्यकाल में अरब में भी जल चिकित्सा लोकप्रिय थी। वर्ष 1675 में प्रकाशित पुस्तक"द यूज़ ऑफ आइस,ऑफ स्नो एंड ऑफ कोल्ड" में एम•बारा ने जल उपचार की अनेक तकनीकों का वर्णन किया है।वर्ष 1697 सर जॉन फ्लोयर ने "हिस्ट्री ऑफ़ कोल्ड वेदिंग"पुस्तक में रोगी को गीली चादर से लपेट कर कंबल से ढकने के बाद जब पसीना अच्छी तरह से निकल जाए तब स्नान कराने की बात लिखी है। इससे रोगी रोगमुक्त होता था।जर्मनी के लूइस कूने में जो 20 वर्ष की आयु में फेफड़े पेट तथा मस्तिष्क के रोगी हो गए थे प्राकृतिक चिकित्सा द्वारा न केवल स्वयं स्वस्थ हुए बल्कि प्राकृतिक चिकित्सा के प्रबल समर्थक बन इसका व्यापक प्रचार-प्रसार करने में आजीवन लगे रहे।भारत में प्राकृतिक चिकित्सा का इतिहास अत्यंत प्राचीन है। वैदिक कालीन ग्रन्थों,बौद्ध ग्रन्थों आदि में जल,मिट्टी,वायु द्वारा स्वास्थ्य लाभ की बात बतलाई गई है ।सिंधु घाटी सभ्यता में ठंडे गर्म जल की सुविधा वाले सार्वजनिक स्नानागारों से ज्ञात होता है कि जल चिकित्सा उस समय महत्वपूर्ण स्थान रखती थी।चरक संहिता में इस तरह के अनेक प्रयोगों की चर्चा है। वर्तमान शताब्दी में महात्मा गांधी ने प्राकृतिक चिकित्सा को भारत में नया जीवन दिया।उनके प्रयासों से प्रभावित अनेक लोगों ने इस दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किए।भारत सरकार के स्तर पर इसके प्रचार प्रसार हेतु "केंद्रीय योग एवं प्राकृतिक चिकित्सा अनुसंधान परिषद" नामक पंजीकृत संस्था के रूप में 30 मार्च 1978 को इसकी स्थापना हुई ।
प्राकृतिक चिकित्सा में प्राकृतिक साधनों एवं स्रोतों का उपयोग व्यक्ति को निरोगी एवं स्वस्थ बनाने के लिए किया जाता है। इस पद्धति का यह विश्वास है कि व्यक्ति प्रकृति का अभिन्न अंग है तथा उसी से उसका निर्माण हुआ है। इसमें पंचतत्व के माध्यम से रोग को दूर किया जाता है। यह पद्धति शरीर में एकत्रित हुए विजातीय तत्वों को बाहर निकालती है। तंत्रिकाओं, धमनियों तथा रक्त प्रवाह में उत्पन्न गतिरोधों को दूर करती है। अंगों को अतिरिक्त शक्ति प्रदान करती है। स्नायु संस्थान को मजबूत बनाती है और शरीर में जिन तत्वों की कमी होती है उनको पूरा करती है। प्राकृतिक चिकित्सा में उपयोगी पंच महाभूत तत्व के माध्यम से विभिन्न प्रकार के रोगों की चिकित्सा की जाती है।

पृथ्वी : भोजन जो हमारे शरीर को पुष्ट करता है पृथ्वी में ही पैदा होता है ।विविध प्रकार के फल ,फूल ,अनाज ,पशुओं का चारा और उनसे मिलने वाले दूध ,दही मक्खन इस की ही देन है ।मिट्टी में अनेक गुण होते हैं ।इसमें सर्दी-गर्मी रोकने की क्षमता होती है। मिट्टी का लेप लगाने से मिट्टी ,रोग ग्रस्त क्षेत्र में जमा विष पदार्थों को सोख कर समाप्त कर देती है।इस हेतु सूखी,साफ,गहराई से निकाली गई मिट्टी उपयोगी होती है। कुछ दिन धूप में रखने से पुरानी मिट्टी को पुनः से उपयोग में ला सकते हैं।
विधि : अंग के जिस भाग में तकलीफ हो वहां मिट्टी का आधा इंच मोटा लेप लगाएं और गीले, सूती कपड़े से ढक दें।जब मिट्टी सूख जाए तब उसे निकालकर उस स्थान को साफ कर लें। रोग के हिसाब से इसका लेप दो-तीन दिन या अधिक लगाया जा सकता है ।वैसे भी इस विधि का कोई साइड इफेक्ट नहीं होता है उल्टे लाभ ही मिलता है अतः आप इसे बेखौफ प्रयोग में ला सकते हैं। मिट्टी को लगाने से पहले उसे पानी में दो-तीन घंटा भिगोकर रखें तो अधिक बेहतर रहेगा। वहीं जल्दी लाभ हेतु गर्म पानी में इस लेप को तैयार कर सकते हैं।लेप बहुत गीला भी नहीं होना चाहिए कि वह बहे वहीं बहुत सूखा भी ना हो जो फौरन ही झड़ने लगे।
जल : जल जो जीवन का आधार है विभिन्न प्रकार से विविध रोगों के उपचार में काम आता है।हमारे शरीर में लगभग 70% जल है।अतः जल की उपयोगिता स्वयं सिद्ध है।स्पाइनल बाथ,हिप बाथ, स्टीम बाथ,आमॆ एवं  फुट बाथ आदि द्वारा तनाव,अवसाद,कब्ज,अपच,सूजन,जकड़न खिंचाव जैसे रोगों का आसानी से इलाज हो सकता है।ठंडे जल और उष्ण जल का बारी-बारी से एक निश्चित अवधि तक प्रयोग किए जाने पर विविध रोगों से छुटकारा मिल जाता है। शरीर में अधिक दाह,जलन में बफॆ (जल की ठोस अवस्था) स्वाभाविक रूप से शीतलता देती है। ठंडे पानी की पट्टी भी तेज ज्वर में राहत देती है। वैसे भी जल के सेवन से शरीर में जमा हो रहे हैं दूषित रोग कारक पदार्थ बाहर निकालना आसान होता है। अतःडेढ से ढाई लीटर पानी रोज पीना स्वास्थ्य के लिए लाभदायक होता है।सुबह उठते ही निराहार जल का (रात्रि में तांबे के पात्र में रख कर)अधिकाधिक सेवन उपयोगी रहता है।
अग्नी : यह प्राण तत्व या कहें आंतरिक ऊर्जा की वृद्धि में सहायक है।प्राकृतिक चिकित्सा में सूर्य स्नान (सन बाथ) व सूर्य किरणों द्वारा जल/तेल को औषधि गुण युक्त बनाकर चिकित्सा की जाती है।सूर्य से विटामिन डी प्राप्त होता ही है साथ ही स्नायु दुर्बलता भी दूर होती है।हीमोग्लोबिन की मात्रा बढ़ती है और जीवनी शक्ति बढ़ती है।
वायु : बिना वायु के एक क्षण भी जीवन जीना संभव नहीं है। यह हम सभी जानते हैं। श्वांस-प्रश्वास को सही ढंग से लिए जाने से हम अधिक बेहतर स्वस्थ जीवन जी सकते हैं।पवन स्नान(एयर बाथ)अर्थात वायु सेवन करना इस हेतु उपयोगी है।प्रातः काल 3 से 4 किलोमीटर टहलने से शरीर के सभी अंगो व मांसपेशियों की कसरत हो जाती है।घास पर नंगे पैर चलना अधिक फायदेमंद है।खेलते समय सामान्य से अधिक तेजी से चलें और गहरी सांस लें तो शरीर की भीतरी,बाहरी सफाई और त्वचा कोमल होती है।वहीं रक्त शुद्ध और फेफड़े मजबूत होते हैं।नियमित प्राणायाम करना भी वायु चिकित्सा का एक प्रकार है। आकाश : पांच तत्वों में यह एक महत्वपूर्ण तत्व है।शरीर में कंठ,उदर,हृदय,कटि,सिर इसके विशिष्ट स्थान हैं।आकाश तत्व का आशय है रिक्त स्थान।जब यह रिक्त स्थान विजातीय तत्वों से भर जाता है तो व्यक्ति रोगी होने लगता है।अतः इस चिकित्सा में रोगी को उपवास की सलाह दी जाती है। प्राकृतिक चिकित्सा में उपवास की तैयारी, उपवास तोड़ने के नियमों पर गंभीरता से अमल कराया जाता है। उपवास के अनेक प्रकार हैं जैसे एकाहार उपवास,रस उपवास,फल उपवास, लघु उपवास,लंबे उपवास आदि।लंबे उपवास योग्य चिकित्सक की देखरेख में ही होने चाहिए।
इस प्रकार से उपरोक्त पंच तत्वों के माध्यम से की जाने वाली चिकित्सा शरीर को स्वस्थ एवं निरोग बनाती है।प्राकृतिक चिकित्सा में आहार पर भी बहुत अधिक ध्यान दिया जाता है।हमारे खान-पान में शरीर की आवश्यकता अनुरूप कौन से पौष्टिक पदार्थ सम्मिलित हों इसको "आहार चिकित्सा" द्वारा जाना जा सकता है। "मसाज या मालिश","चुंबक चिकित्सा", "मंत्र चिकित्सा" आदि अनेक विधाएं प्राकृतिक चिकित्सा के अंतर्गत आती हैं।इनके माध्यम से हम प्रकृति में नैसर्गिक रुप से विद्यमान "स्वस्थ" करने की शक्ति को अपने इस्तेमाल में बखूबी ला सकते हैं और वह भी बहुत सरलता से बिना किसी ज्यादा तामझाम के ।इस चिकित्सा की सबसे बड़ी खासियत है कि इसका कोई साइड इफेक्ट नहीं है।वहीं यह आम आदमी की जेब पर भी भारी नहीं पड़ती है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि प्राकृतिक चिकित्सा सर्वाधिक उपयोगी चिकित्सा विधि है और इसका कोई सानी नहीं है।आइए हम कोशिश करें कि प्रकृति के साथ जुड़कर हम अपना जीवन अधिक स्वस्थ और खुशहाल बनाएं।

@नलिन #तारकेश

गतांक से आगे:(भाग-3)#कालचक्र #कमॆ #कृपा

गतांक से आगे भाग: 3
#कालचक्र #कर्म #कृपा
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हमारे मार्गदर्शक मिलिट्री के अधिकारी हमें अब अक्षयवट के दर्शन हेतु ले जा रहे थे।उनसे हमें यह पता चला कि अक्षयवट जिसके दर्शन जनसामान्य करता है वह वास्तविक नहीं है।असली तो, जिसके बारे में प्रचलित है कि वह प्रलय से भी पूर्व का है और जिसके दर्शन वनवास के दौरान, चित्रकूट जाते समय भगवान राम, सीता और लक्ष्मण ने किए थे किले के अंदर मिलिट्री के पहरे में है जहां किसी को सामान्य जन को प्रवेश की इजाजत नहीं है। हलक में कुछ तीखापन चुभा। यह कैसा लोकतंत्र है जहां आराध्य और भक्त के बीच में पहरेदार खड़े कर दिए जाते हैं।उस पर तथाकथित सेक्यूलरों का छाती पीटते आरोप-प्रलाप यह भी कि हिंदू इतना असहिष्णु क्यों है?संविधान के उच्चतम पदों और सिर ऑखों में बैठाने के बावजूद भी इन लोगों को अपनी दृष्टि-दोष के चलते हमारे देश(स्वाभाविक है ये उन्हें अपना देश तो नहीं लगता होगा) का माहौल सवॆत्र भय,आतंक और वैमनस्य भरा नजर आता है। कुल मिलाकर बेशरमी की पराकाष्ठा है कि जिस थाली में खाओ उसमें ही छेद करो।हमारे पूवॆज हमारे आराध्य श्रीराम का जन्म स्थल ही आज विवादित बना दिया जाता है।हमें अपने ही देश में लोकतंत्र की आड़ में ठेंगा दिखाया जा रहा है।सचमुच यह सब देखना, सुनना,पढ़ना बड़ा भयावह, है पर सच तो यही है कि गंगा घाट पर हमें कर्मनाशा (मान्यता है इसमें स्नान मात्र से पुण्यों का नाश होता है)नदी का तिक्त विषैला जल ही पिलाया जा रहा है।हम भी अभिशप्त से उसे चुपचाप बस भोग रहे हैं क्योंकि हम भारत रुपी अक्षयवट के तने पर एकसूत्र में बंध कर,उससे लिपट कर रहने का साहस, आत्मबल विस्मृत कर चुके हैं।जाने कब हम विवेकानन्द जी के "उत्तिष्ठित जाग्रत " के आवाहन को असल में स्वर देंगें।अस्तु।

त्रिवेणीं माधवं सोमं भारद्वाजं च वासुकीम। वंदे अक्षयवटं शेषं प्रयागं तीर्थ नायकम्।।

अक्षयवट तो प्रयागराज तीर्थ का नायक है। पहले यह संगम तट पर था किंतु अकबर ने किला बनाते समय इसे उसकी चारदीवारी के भीतर ले लिया।उसके पुत्र जहांगीर ने कहा जाता है इसे न केवल काट दिया अपितु जला भी दिया।लेकिन यह पुनः से अंकुरित हो गया अक्षयवट अपने नाम के अनुरूप नष्ट न होने वाला वट वृक्ष है। इसमें भगवान विष्णु बालस्वरूप में निवास करते हैं और प्रलय काल में इसके पत्ते पर विराजमान हो पैर का अंगूठा चूसते, लहरों में तैरते अपनी ही लीला को निहारते हैं। प्रयागराज में अक्षयवट की आषाढ़ शुक्ल एकादशी को आजादी पश्चात वर्ष 1950 में पहले पहल विधिवत पूजा अर्चना हुई थी। पुराणों के अनुसार पाप के बोझ से आक्रांत पृथ्वी को बचाने हेतु ब्रह्मा जी ने तीर्थराज में बड़ा भारी यज्ञ किया था। वह स्वयं पुरोहित बने,विष्णु यजमान बने और शिव देव रुप में पूजित हुए। त्रिदेवों ने अपने संयुक्त प्रभाव से क्योंकि अक्षयवट को उत्पन्न किया था अतः इस के दर्शन को त्रिदेव का ही दर्शन माना जाता है ।
भगवान श्रीहरि की प्रेरणा से यंत्रवत ये अधिकारी हमारे लिए अक्षयवट के दर्शन की अनुमति ले चुके थे और त्रिदेवों के शक्तिपुंज अक्षयवट के सम्मुख हम सभी नतमस्तक थे। वहां के पुजारी से हमें उसका एक पत्ता भी मिला जो हमारी इस अलौकिक दिव्य यात्रा का साक्षी बना। इसे मैंने अपने पूजा-गृह में स्थापित कर दिया इस विश्वास से कि यह मुझे सदैव "जा पर कृपा राम की होई, तापर कृपा करे सब कोई" की भावना से अभिसिंचित/प्रेरित करता रहेगा।
वहां से फिर हम मैस में भोजन हेतु गए।यद्यपि समय ज्यादा हो गया था तो हल्की ही पेट पूजा की वैसे भी मन तो गंगा स्नान और अक्षयवट दर्शन से ही तृप्त हो चुका था। मिलिट्री अधिकारियों को जो हमको हमारी वैन तक खुली मिलैट्री जीप से छोड़ने आए थे  सादर कृतज्ञता ज्ञापित कर उन्हें हमने नमन किया और उनसे विदाई ली। रास्ते में एक स्थान पर रुक कर हमने इलाहाबादी अमरूद प्रसाद स्वरूप आस-पड़ोस में बांटने और स्वयं के उदरस्थ हेतु खरीद लिए। इस तरह हमारी  एक छोटी किंतु अत्यन्त स्मरणीय व महत्वपूर्ण यात्रा ने विश्राम लिया।
यूॅ हमारा यह जीवन तो स्वयं हमारी अनंत यात्रा का एक पड़ाव मात्र है। जन्म-जन्म से न जाने कितने-कितने रूपों में भटकते,सम्भलते पूर्णरूपेण विश्राम रूपी मोक्षधाम (वैकुंठवास) प्राप्त कर पाने की राह में हम अनवरत गतिमान हैं।वैसे अन्य लोगों से इतर भक्तों के मन में तो कामना यही रहती है कि वे भूलोक में मानव देह लेकर पुनः पुनः आते रहें और यथाशक्ति नवधा-भक्ति के माध्यम से अपने आराध्य का भजन करते रहें।यद्यपि मानवीय देह में आना,संसार चक्र का हिस्सा बनना और उससे विलग होना कष्टप्रद तो है किंतु भक्तों के लिए यह कष्ट नहीं अपितु अपने स्वामी के दरबार में नित्य प्रत्येक श्वास हाजिरी बजाने का सुखद अवसर है।प्रभु भी क्रीडाप्रिय,कौतुकी हैं सो भक्तों को कभी अपने द्वार (तीर्थ स्थलों) में बुला लेते हैं तो कभी स्वयं उसके द्वार अचानक से अपने "श्री-चरणों" की छाप पहुंचा जाते हैं। वैसे तो इन पंक्तियों का अर्थ कुछ निकलता नहीं भी है क्योंकि जब "सबै भूमि गोपाल की" तो फिर कहां आना, कहां जाना। कौन भक्त, कौन अभक्त। पर लौकिक मायावश तो ऐसा ही स्वीकार करना पड़ता है। "श्री-चरणों "से ही ध्यान आया कि एक दिन  स्वप्न में मुझे एक बड़ी चमकदार श्वेत वस्तु सी दिखाई दी। जिसे उसकी रोशनी के चलते समझ नहीं पाया कि वो क्या है।उस वस्तु को कोई मेरी भाभी जी को भेंट कर रहा था। सुबह जब उठा तो दिमाग में वही स्वप्न था। उस समय तो मैंने उसे किसी से शेयर नहीं किया पर जब दिन में पता चला कि भाभी जी को आज अपनी  बुआजी के साठवें जन्मदिवस हेतु आयोजित कायॆक्रम(रुड़की से आई)में जाना है तो मुझे लगा कि सम्भवतः वे अपने उदार स्वभाव के चलते भाभीजी को कुछ स्वयं से भेंट कर सकती हैं।सो मैंने उनसे कहा कि यदि आपको बुआजी से कोई रिटॆन गिफ्ट सफेद रंग का मिले तो मुझे दे दें।उन्होंने भी बिना क्षण गंवाये इसका वादा कर दिया। क्रमशः ▪▪▪▪▪

@नलिन #तारकेश(24/1/2018)