Wednesday, 24 January 2018

गतांक से आगे:(भाग-3)#कालचक्र #कमॆ #कृपा

गतांक से आगे भाग: 3
#कालचक्र #कर्म #कृपा
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हमारे मार्गदर्शक मिलिट्री के अधिकारी हमें अब अक्षयवट के दर्शन हेतु ले जा रहे थे।उनसे हमें यह पता चला कि अक्षयवट जिसके दर्शन जनसामान्य करता है वह वास्तविक नहीं है।असली तो, जिसके बारे में प्रचलित है कि वह प्रलय से भी पूर्व का है और जिसके दर्शन वनवास के दौरान, चित्रकूट जाते समय भगवान राम, सीता और लक्ष्मण ने किए थे किले के अंदर मिलिट्री के पहरे में है जहां किसी को सामान्य जन को प्रवेश की इजाजत नहीं है। हलक में कुछ तीखापन चुभा। यह कैसा लोकतंत्र है जहां आराध्य और भक्त के बीच में पहरेदार खड़े कर दिए जाते हैं।उस पर तथाकथित सेक्यूलरों का छाती पीटते आरोप-प्रलाप यह भी कि हिंदू इतना असहिष्णु क्यों है?संविधान के उच्चतम पदों और सिर ऑखों में बैठाने के बावजूद भी इन लोगों को अपनी दृष्टि-दोष के चलते हमारे देश(स्वाभाविक है ये उन्हें अपना देश तो नहीं लगता होगा) का माहौल सवॆत्र भय,आतंक और वैमनस्य भरा नजर आता है। कुल मिलाकर बेशरमी की पराकाष्ठा है कि जिस थाली में खाओ उसमें ही छेद करो।हमारे पूवॆज हमारे आराध्य श्रीराम का जन्म स्थल ही आज विवादित बना दिया जाता है।हमें अपने ही देश में लोकतंत्र की आड़ में ठेंगा दिखाया जा रहा है।सचमुच यह सब देखना, सुनना,पढ़ना बड़ा भयावह, है पर सच तो यही है कि गंगा घाट पर हमें कर्मनाशा (मान्यता है इसमें स्नान मात्र से पुण्यों का नाश होता है)नदी का तिक्त विषैला जल ही पिलाया जा रहा है।हम भी अभिशप्त से उसे चुपचाप बस भोग रहे हैं क्योंकि हम भारत रुपी अक्षयवट के तने पर एकसूत्र में बंध कर,उससे लिपट कर रहने का साहस, आत्मबल विस्मृत कर चुके हैं।जाने कब हम विवेकानन्द जी के "उत्तिष्ठित जाग्रत " के आवाहन को असल में स्वर देंगें।अस्तु।

त्रिवेणीं माधवं सोमं भारद्वाजं च वासुकीम। वंदे अक्षयवटं शेषं प्रयागं तीर्थ नायकम्।।

अक्षयवट तो प्रयागराज तीर्थ का नायक है। पहले यह संगम तट पर था किंतु अकबर ने किला बनाते समय इसे उसकी चारदीवारी के भीतर ले लिया।उसके पुत्र जहांगीर ने कहा जाता है इसे न केवल काट दिया अपितु जला भी दिया।लेकिन यह पुनः से अंकुरित हो गया अक्षयवट अपने नाम के अनुरूप नष्ट न होने वाला वट वृक्ष है। इसमें भगवान विष्णु बालस्वरूप में निवास करते हैं और प्रलय काल में इसके पत्ते पर विराजमान हो पैर का अंगूठा चूसते, लहरों में तैरते अपनी ही लीला को निहारते हैं। प्रयागराज में अक्षयवट की आषाढ़ शुक्ल एकादशी को आजादी पश्चात वर्ष 1950 में पहले पहल विधिवत पूजा अर्चना हुई थी। पुराणों के अनुसार पाप के बोझ से आक्रांत पृथ्वी को बचाने हेतु ब्रह्मा जी ने तीर्थराज में बड़ा भारी यज्ञ किया था। वह स्वयं पुरोहित बने,विष्णु यजमान बने और शिव देव रुप में पूजित हुए। त्रिदेवों ने अपने संयुक्त प्रभाव से क्योंकि अक्षयवट को उत्पन्न किया था अतः इस के दर्शन को त्रिदेव का ही दर्शन माना जाता है ।
भगवान श्रीहरि की प्रेरणा से यंत्रवत ये अधिकारी हमारे लिए अक्षयवट के दर्शन की अनुमति ले चुके थे और त्रिदेवों के शक्तिपुंज अक्षयवट के सम्मुख हम सभी नतमस्तक थे। वहां के पुजारी से हमें उसका एक पत्ता भी मिला जो हमारी इस अलौकिक दिव्य यात्रा का साक्षी बना। इसे मैंने अपने पूजा-गृह में स्थापित कर दिया इस विश्वास से कि यह मुझे सदैव "जा पर कृपा राम की होई, तापर कृपा करे सब कोई" की भावना से अभिसिंचित/प्रेरित करता रहेगा।
वहां से फिर हम मैस में भोजन हेतु गए।यद्यपि समय ज्यादा हो गया था तो हल्की ही पेट पूजा की वैसे भी मन तो गंगा स्नान और अक्षयवट दर्शन से ही तृप्त हो चुका था। मिलिट्री अधिकारियों को जो हमको हमारी वैन तक खुली मिलैट्री जीप से छोड़ने आए थे  सादर कृतज्ञता ज्ञापित कर उन्हें हमने नमन किया और उनसे विदाई ली। रास्ते में एक स्थान पर रुक कर हमने इलाहाबादी अमरूद प्रसाद स्वरूप आस-पड़ोस में बांटने और स्वयं के उदरस्थ हेतु खरीद लिए। इस तरह हमारी  एक छोटी किंतु अत्यन्त स्मरणीय व महत्वपूर्ण यात्रा ने विश्राम लिया।
यूॅ हमारा यह जीवन तो स्वयं हमारी अनंत यात्रा का एक पड़ाव मात्र है। जन्म-जन्म से न जाने कितने-कितने रूपों में भटकते,सम्भलते पूर्णरूपेण विश्राम रूपी मोक्षधाम (वैकुंठवास) प्राप्त कर पाने की राह में हम अनवरत गतिमान हैं।वैसे अन्य लोगों से इतर भक्तों के मन में तो कामना यही रहती है कि वे भूलोक में मानव देह लेकर पुनः पुनः आते रहें और यथाशक्ति नवधा-भक्ति के माध्यम से अपने आराध्य का भजन करते रहें।यद्यपि मानवीय देह में आना,संसार चक्र का हिस्सा बनना और उससे विलग होना कष्टप्रद तो है किंतु भक्तों के लिए यह कष्ट नहीं अपितु अपने स्वामी के दरबार में नित्य प्रत्येक श्वास हाजिरी बजाने का सुखद अवसर है।प्रभु भी क्रीडाप्रिय,कौतुकी हैं सो भक्तों को कभी अपने द्वार (तीर्थ स्थलों) में बुला लेते हैं तो कभी स्वयं उसके द्वार अचानक से अपने "श्री-चरणों" की छाप पहुंचा जाते हैं। वैसे तो इन पंक्तियों का अर्थ कुछ निकलता नहीं भी है क्योंकि जब "सबै भूमि गोपाल की" तो फिर कहां आना, कहां जाना। कौन भक्त, कौन अभक्त। पर लौकिक मायावश तो ऐसा ही स्वीकार करना पड़ता है। "श्री-चरणों "से ही ध्यान आया कि एक दिन  स्वप्न में मुझे एक बड़ी चमकदार श्वेत वस्तु सी दिखाई दी। जिसे उसकी रोशनी के चलते समझ नहीं पाया कि वो क्या है।उस वस्तु को कोई मेरी भाभी जी को भेंट कर रहा था। सुबह जब उठा तो दिमाग में वही स्वप्न था। उस समय तो मैंने उसे किसी से शेयर नहीं किया पर जब दिन में पता चला कि भाभी जी को आज अपनी  बुआजी के साठवें जन्मदिवस हेतु आयोजित कायॆक्रम(रुड़की से आई)में जाना है तो मुझे लगा कि सम्भवतः वे अपने उदार स्वभाव के चलते भाभीजी को कुछ स्वयं से भेंट कर सकती हैं।सो मैंने उनसे कहा कि यदि आपको बुआजी से कोई रिटॆन गिफ्ट सफेद रंग का मिले तो मुझे दे दें।उन्होंने भी बिना क्षण गंवाये इसका वादा कर दिया। क्रमशः ▪▪▪▪▪

@नलिन #तारकेश(24/1/2018)

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