Friday, 5 January 2018

ऑखों से पीकर समुंदर

आंखों से पीकर समुंदर दुःखों का क्या अजूबा हो गया।
नमकीन,चिपचिपा,गहराई में डूब वो चुप हो गया।

रंगे सियार सा बुजदिल चूड़ियों की आवाज से जो डर रहा।
नापाक दामन उसका जगजाहिर देखो आज यूं हो गया।।

आंखों में सपने हजार लिए वो गांव छोड़ शहर आया।
जमीन का बचा एक अदद टुकड़ा भी अब गिरवी हो गया।।

रेत में चलते हुए पानी की प्यास वाजिब थी। सो आंख से बहता हर एक अश्क दरिया हो गया।।

आकाश जमीन मिलते हैं दूर कहीं सुना था। खोजते-खोजते वो तो कहीं खुद ही खो गया।।

लिपा-पुता मकान तो अलग भला सा दिखता है मगर।
देखना जरा खोखला ना कहीं वो भीतर हो गया।।

जीना आसान नहीं मगर मरना भी कब आसान हुआ कहो तो।
खुद को भुला जब लौ उसकी लगी तो सब ये आसान हो गया।।

खुद ही नकारते हैं पहले फिर भरते हैं हामी खुद ही।
राजनीति का देखिए अजब मिजाज महबूबा सा हो गया।।

जाने क्यों बेवजह लिख रहे"उस्ताद"हर रोज कलाम।
चलन कलम के दुआ सलाम का एक अरसा कजा हो गया।।

@नलिन  #उस्ताद

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