Wednesday 31 August 2016

राम राम रट ...21 पंक्ति


  1. राम राम रट श्री गणेश प्रथम पूज्य बन गए। 
  2. राम राम रट भोलेशंकर "तारकेश" बन गए। 
  3. राम राम रट नारद ऋषि निर्विकार बन गए। 
  4. राम राम रट वाल्मीकि आदिकविराज बन गए।   
  5. राम राम रट तुलसीदास भक्त शिरोमणि बन गए।
  6. राम राम रट हनुमान सर्वसिद्धिदाता बन गए।
  7. राम राम रट दशरथ कुल संग जगविख्यात हो गए। 
  8. राम राम रट जानकी ब्रह्मांडनायक मिल गए।   
  9. राम राम रट भरत भाई राम समान बन गए। 
  10. राम राम रट लखन भाई जगताधार बन गए। 
  11. राम राम रट शत्रुघ्न भाई रिपुदमन बन गए। 
  12. राम राम रट विश्वामित्र जनकल्याण कर गए।  
  13. राम राम रट अहिल्या के श्राप सभी मिट गए। 
  14. राम राम रट केवट वंशतारक बन गए। 
  15. राम राम रट कागभुशुण्डि कृपापात्र बन गए। 
  16. राम राम रट सुग्रीव,विभीषण राजपाट पा गए। 
  17. राम राम रट जीव अनेक जन्म सुफल कर गए। 
  18. राम राम रट पतित पंक में,"नलिन" बन खिल गए। 
  19. राम राम रट वरना तो अनमोल छन गए तो गए।
  20. राम राम रट,राम राम रट तन-मन सब निर्मल हो गए। 
  21. राम राम रट  सब जन मनवांछित फल पा गए।    


Monday 29 August 2016

कबहुं नयन मम सीतल ताता


कबहुं नयन मम सीतल ताता 
होइहहिं निरखि स्याम मृदुगाता। सुंदरकांड १ ३/६ 
श्याम सलोनी रूप माधुरी छटा तिहारी
आँखें तरस रहीं देखने को छवि तिहारी।
मैं तो घिरी काम,क्रोध दानवों से भारी
अब तो ले लो सुध अविलम्ब खरारी।
तेरी विरदगाथा सदा भक्त हितकारी
मेरी अरज में भला क्यों देर भारी।
शंख,चक्र.गदा,पद्म चार भुजाधारी
विनती सुनो "नलिन"नैन बलिहारी।

Sunday 28 August 2016

श्रीशंकरसर्पयाष्टक {हिंदी पद्य में अनुवादित }महिमामयी शिवपूजन स्तोत्र




कल्याण पत्रिका के शिवोपासनांक में शिव पूजनार्थ 8 पद्य वाले "श्रीशंकरसपर्याष्टकं"का हिंदी गद्य में पद्मश्री डॉ. श्रीकृष्णदत्तजी ने अनुवाद किया है। उसका ही पद्य रूप हिंदी में शिव भक्तों के आनंदार्थ एक विनम्र प्रयास मेरे द्वारा प्रस्तुत है-------
श्रीशंकरसर्पयाष्टक 
जय जय शिवशंकर "तारकेश" प्रभु तुम्हारी सदा-सदा ही जय होवे  
जय जय शिवशंकर "तारकेश" प्रभु तुम्हारी सदा-सदा ही जय होवे। 
भक्तों पर कृपा बरसाते अधरों की हँसी शरदचंद्र कांति को करती फीकी 
आप जगत के कारण स्वरुप हो,श्रीविग्रह छवि तिहारी गौर चंद्र सी नीकी।
नमन शैलजापति "नलिन"माल कंठ शोभा है जिनकी  छायी 
जटाजूट गंग तरंग विराजमान भाल दीप्ति सब जन है भायी।
हार सामान विशाल नाग वक्षःस्थल शोभित छवि न्यारी 
भक्त आनंद अभीष्ट वैभव सदैव ही प्रदानकारी। 
निमग्न स्तुति में ऋषि मुनि देव समस्त भुलोकवासी 
तेरी कृपा से हे आशुतोष हम तो हो सके सुखरासी।
विराजित हिमाच्छादित कैलाश,पारिजात वृक्ष तले ही 
त्रिनेत्रधारी,शूलपाणि,शत्रुमर्दन पिनाकधारी सदा ही।
हे अखिलेश्वर छवि आपकी शुभ चित्त मुनिजन विराजती 
नमन श्रद्धा विश्वास से करता हूँ आपको पाने को सद्गती।
कर्म,प्रारब्ध से मुक्त कल्याणकारी हे सदाशिव शम्भो 
हृदय से मेरे समस्त पाप को मुक्त कर दीजिये प्रभो। 
नित्य मंगल विधान और "नलिन"चरण अनुराग दीजिये 
शीघ्र ही समस्त विपत्तियों को हमारी नष्ट नाथ कीजिये। 
अमरता पाने के इच्छुक देव अमृतपान करना थे चाहते 
छीरसागर मंथन से प्रगट विष हुआ तो भयभीत हो कांपते। 
कृपासागर भोलेनाथ द्रवित तब हलाहल पान कर गए 
ऐसे आदिदेव मृत्युंजय भगवान् के चरण नत हम हुए। 
अज्ञान अन्धकार जगत में विलीनव्याकरण का अलोक किया 
पाणिनि को कृपादृष्टि से प्राचीन सूत्र उद्घाटित आपने किया। 
ऐसे त्रिपुरारी भगवान् शिव को जो ज्ञान के हैं ज्ञानदाता 
नमन करता हूँ मैं प्रभु आप तो हैं परम आंनददाता। 
मस्तक विराजित आपके पवित्र गंगा,चंद्र की निर्मल किरणावली 
पापविमोचक,भक्तकष्टविनाशकारी,सदा जय हो तेरी विरुदावली।      

  



Friday 26 August 2016

"मौन" श्रद्धा सुमन


सहारा इंडिया परिवार के हमारे एक कार्यालय सहयोगी मनोज श्रीवास्तव "मौन" के असमय काल कवलित होने पर ह्रदय छुब्ध है। सादर श्रद्धा सुमन   ...... "मौन"



"मनोज" अंततः हो गया "मौन" है
याने काम,इच्छा से परे "मौन"है।
तो अब शेष रहा भला क्या है ?
परमसत्ता लीन हुआ जब "मौन" है।
दरअसल हर शब्द तो भोथरा है
झूठ,मक्कारी के रस से भरा है।
शुचितापूर्ण तो एक मात्र "मौन" है
मायावी पैंतरों से मुक्त तो "मौन" है।
सहारा कौन किसका कब तक रहा है?
जगत-व्यापार तो निष्ठुर बड़ा "मौन" है।  
समय-असमय उसे कहाँ होश है
वो तो अपनी मस्ती में "मौन" है।
इसी कालचक्र के आगे पंक्तिबद्ध हैं
हम,तुम सभी होने को "मौन" हैं।   

Wednesday 24 August 2016

नील 'नलिन' सी आभा तेरी, देख देख हूँ दंग


तेरी न्यारी अलकावलि में उलझ उलझ कर रह जाये मन । 
ओ मेरे नटखट प्यारे तू तो सदा सदा सबका है मनमोहन।
जाने कैसी कैसी लीला करता समझ न पाए मन ।
कभी पुचकारे तो फिर छन में विचलित करता मन। 
निष्ठुर छैल छबीले, सुन ले मेरी, तेरी तुझको कसम। 
कब तक दांव पेंच दिखाए अपने, मुझको मेरे सनम। 
गली गली में डोला जब जब मिला न तेरा संग। 
थक कर जा बैठा तो तूने, लगा लिया हैं अंग। 
नील 'नलिन' सी आभा  तेरी, देख देख हूँ दंग। 
कभी कभी क्यों दिखलाता, हर पल दिखला ये रंग। 

Sunday 14 August 2016

साई भुला दूँ ये दुनिया सारी



साई भुला दूँ ये दुनिया सारी
करता रहूँ बस तेरी चाकरी
ये ही इच्छा मेरी अधूरी
कर दे इसको जल्द तू पूरी
वर्ना कट जाएगी उम्र ये सारी
कैसे होगी फिर चाह ये पूरी
माया में नित डूबी काया मेरी
ले उबार,दे अपनी मंजूरी। 

Saturday 13 August 2016

शिव रूप छोड़,हनुमान बन भक्ति सबको सिखायी

बजरंगबली भला तेरी महिमा कहो किसने न जग गायी।
शरण आया जो तेरी हर मुश्किलों से निजात पायी।।
राम नाम महिमा अमित,अपार तूने ही फैलायी।
शिव रूप छोड़,हनुमान बन भक्ति सबको सिखायी।।
अष्ट-सिद्धि,नव-निधि प्राप्त कर  जग हित लगायी।
हर घडी राम-राम बस यही एक अलख जगायी।।
समस्त कामना से दूर तूने बस राम उर लौ लगायी।
याद दिलाए बल तिहारा तब कहीं महिमा दिखायी।।
श्री राम के भक्त हित सदा करुणा अपार तूने दिखायी।
हर असंभव कार्य कर उसे श्री राम की प्रभुता बतायी।।


Friday 12 August 2016

ये माना कि सारी कायनात कतरा-कतरा तेरा ही रूप है



ये माना कि सारी कायनात कतरा-कतरा तेरा ही रूप है। 
जहाँ बैठ गया साकार रूप वहां की बात पर कुछ और है।। 
तेरे रहमो-करम से भला कौन यहाँ महफूज़ नहीं है। 
पिला दी दो बूँद आँखों से जिसे उसकी मस्ती कुछ और है।।  
दुनिया बनाने वाले रंग कितने बेहिसाब तूने इसमें भरे हैं 
रंग दे अगर तू अपने ही रंग में तो वो रंग कुछ और है।।  
तुझसे मिलकर बात करने को जाने कितने सपने संजोये हैं। 
दिल में रहकर मगर पर्दादारी की आदत तेरी कुछ और है।।  
तेरी एक झलक,पद्चाप के लिए धड़कता दिल मेरा है। 
"उस्ताद"सुना है सबसे जुदा,रसीला तेरा रूप कुछ और है।।  

Thursday 11 August 2016

तुलसी और श्रीरामचरितमानस



बचपन में एक निबंध पढ़ा था उसमें ‘मेरा प्रिय ग्रंथ’ के अंतर्गत रामचरितमानस को आधार बनाया गया था। उस समय थोड़ा अटपटा सा लगा था। शायद इसलिए कि उसे तो हम धार्मिक ग्रंथ के रूप में जानते थे। प्रिय जैसा संबोधन कुछ अलग सा लगा था। जैसे प्यारी मां, प्यारे पिता जैसी बात समझ में नहीं आती । मां, मां है, पिता, पिता है। उसमें भी अच्छा, बुरा कुछ हो सकता है क्या? ऐसा उस समय लगा था। खैर उस समय से अब तक जितनी बार भी भाव, कुभाव मानस का पाठ होता जा रहा है वह उतनी ही प्रिय से प्रियतर होती जा रही है। अब ये तुलसीदासजी की सरल, सहज भाषा में लिखे जाने के कारण है, मेरी रामजी के प्रति आस्था के कारण है, शिवजी द्वारा इस कृति पर अपने हस्ताक्षर किए जाने से मंत्र-मंत्र हुए प्रत्येक शब्द के कारण है या ईश्वर की विशिष्ट अनुकंपा के कारण है कुछ कह पाना ठीक-ठीक संभव नहीं।
हमारे पैतृक स्थल पिथौरागढ़, उत्तराखंड वाले घर में तो रामायण का पूरी भव्यता से पाठ संभवतः 5-6 माह में होता ही रहता था। लखनउळ के घर में भी बहुधा ऐसा संयोग बनता रहता था। कम कहने को मोहल्ले, रिश्तेदारी, मित्रों, जान-पहचान के घर में भी इसका सस्वर पारायण होता रहता था। मानस की पंक्ति-पंक्ति में ही इतना आकर्षण है कि वह बरबस आपको अपने में समेट लेती है। जैसे मां अपने नवजात शिशु को स्तनपान कराते चलती है। वैसा ही कुछ वात्सल्य,अमृतपान का सुख मानस कराते चलती रहती है। दूसरी बात उसमें अद्भुत संगीत का जादू है। वेदों की ऋचाओं का सस्वर पाठ जैसे कानों को दिव्य अनुभूति का पान करता है। वैसा ही कुछ बड़ा स्वाभाविक सा किसी भी धुन, किसी भी ताल पर इसका पारायण अंतर्मन को तरंगित करने में समर्थ है।
संतप्रवर तुलसीदासजी ने अनेक रचनाएं अपने जीवनकाल में की लेकिन श्रीरामचरितमानस और हनुमान चालीसा का सा प्रभाव तो किसी भी ग्रंथ के मुकाबले ‘भूतो न भविष्यति’ लगता है। इसलिए और भी क्योंकि इनकी पकड़ का क्षेत्र बड़ा व्यापक है। जनसामान्य से लेकर तथाकथित गंवार (वस्तुतः जो कहीं ज्यादा रामजी के निकट हैं) और विशिष्ट बुद्धिजीवियों तक। कोई ऐसा नहीं है जो उसके रसधार में स्नान का इच्छुक न हो। कोई सामान्य रामकथा के आधार पर उसका पारायण कर प्रसन्न होता है तो कोई उसमें छुपे अलौकिक भाव रूपी मोतियों को एकत्रित कर सबको चमकृत कर देता है तो कोई उससे ही अपने राम को रिझाने में व्यस्त रहता है।
तुलसी की रामकथा अलौकिक है, भव्य है, भक्ति की पराकाष्ठा है, सामाजिक व्यवस्था की नींव है, भगवान को भक्त की अनुपम भेंट है। क्या नहीं है यह? समस्त श्रेष्ठ ग्रंथों वेद, वेदांग, पुराण, उपनिषद - सबका सरल, सहज शब्दों में सार है इसमें। मुझे तो इसके अलावा और कोई ग्रंथ आंखों में बसता ही नहीं। वैसे सच तो ये है कि इसके अतिरिक्त और कोई ग्रंथ पढ़ा ही  नहीं। इसके ही सावन में अंधा हुआ हूं तो भला और क्या सूझेगा। सब हरा-हरा, जितना भी समझ आ रहा है वो तुलसीदासजी की ही कृपा का परिणाम है।
इधर आजकल लोगों में गुरु बनाने की प्रवृत्ति जोर मारती दिख रही है फिर साथ ही मेरा गुरु  तेरे गुरु  से श्रेष्ठ हैं ऐसे भी बात देखने में आ रही है। टेलीविजन और मीडिया के बढ़ते प्रभाव से इसका असर काफी व्यापक हुआ है। उन पर प्रसारित प्रवचनों से सरल बुद्धि, भक्ति भावना से ओतप्रोत लोग गुरु  और गुरुघंटालों में भेद कहां कर पा रहे हैं। एक अजब भेड़-धसान सा चित्र सामने आ रहा है। जबकि हमारी संस्कृति में गुरु  ही अपने शिष्य को खोजता है। जो भी होगुरु तो गुरु ही है उस पर कुछ टिप्पणी शोभनीय नहीं लेकिन मुझे लगता है कि तुलसीदासजी के महान ग्रंथ श्रीरामचरितमानस के रहते किसी अन्य को गुरु बनाने की आवश्यकता ही क्या है? गुरु  तो वही है न जो आपको सांसारिक, आध्यात्मिक जीवन से जुड़ी समस्त समस्याओं से निजात दिलाने में पथ प्रदर्शक की भूमिका निभाए। और परमात्मा से आपका मिलन करा दे। श्रीरामचरितमानस इस दृष्टि से शतप्रतिशत खरा उतरता है। वो आपको पीतल से सोना बनाने की सामर्थ्य रखता है। धीरे-धीरे वह आपका कायाकल्प करने लगता है। गुरु  की तरह वह आपसे संवाद करता चलता है और हर छोटी-बड़ी समस्याओं का सामाधान देने लगता है। बस उसके सम्मुख अपने को जैसे हैं वैसे प्रस्तुत कर दीजिए। अपनी खामियां खुद समझ में आने लगेंगी। सही दृष्टि, सही व्यक्तित्व, सही निर्णय लेने की क्षमता स्वतः पैदा होने लगेगी। श्रीरामचरितमानस का दैनिक रूप में नियमित पाठ सुबह-शाम या कि समयाभाव में एक ही बार 5 से 7 दोहों को लेकर किया जाना गुरु की हमारे जीवन में मंगलकारी उपस्थिति दर्ज करा देगी। इसमें संदेह नहीं। श्रीरामचरितमानस के अंतिम छंद में तुलसीदासजी इस बात की गारंटी भी देते हैं ‘सत पंच चौपाई मनोहर जानि जो नर उर धरै। दारुन अविद्या पंच जनित बिकार श्री रघुबर हरै।।’ सो रामचरिमानस से अधिक कल्याणकारी ग्रंथ कौन होगा जिसका पारायण पुनः तुलसी के ही शब्दों में ‘कलिमूल मनोमल धोइ बिनु श्रम राम धाम सिधावहीं’ की आश्वस्ति देता हो। सो तुलसी जयंती पर तुलसीदासजी का शतकोटि अभिनंदन कि उनकी साधना के पुण्य प्रताप से हमें श्री रामचरितमानस सा दुर्लभ रामभक्ति की कृपा-सरिता में स्नान का अवसर दिलाने वाले ग्रंथ का उपहार मिला । इसका पूरे मनोयोग से हम पाठ करते चलें तो न केवल तुलसीदास जी को हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी अपितु अपने जीवन की राह भी रामजी के श्री चरणों तक नतमस्तक होने के लिए प्रशस्त हो जाएगी।
श्री राम जय राम जय जय राम।

Wednesday 10 August 2016

संत प्रवर तुलसीदास श्रध्दा सुमन

वेद,पुराण,उपनिषद जैसे सब ग्रंथों का सार। 
शिव-मानस सदा रहा है,इनका शुभ आगार।।
जगद्गुरु ने उसी तत्व का,लेकर फिर आधार। 
रचा राम का निर्मल विस्तृत चरित अपार।।
शिवशंकर के वरद हस्त का पाकर आशीर्वाद। 
किया श्रवण "तुलसी" ने उर में रामकथा संवाद।।
भाव समाधि में किया फिर,झूम-झूम कर गान। 
रामचरितमानस से उपजा,जन-जन का कल्यान।।
मंत्रबद्ध है रचना सारी,सबका है ऐसा विश्वास। 
पढना,सुनना भरता अंतरमन में बड़ी मिठास।।
राम नाम के भक्त अनूठे,संत सरल तुम जग विख्यात।
भक्ति देकर सिय-राम की "नलिनदास" को करो सनात।। 


Tuesday 9 August 2016

विकास गीत सबके लिए माँ भारती ने गुनगुनाया।।

नव विभा,नव उल्लास,नव रंग हर दिशा छाया।
नव दिवाकर,स्वतंत्रता जब प्रभात लिए आया।।
रंग केसरिया बलिदान,त्याग और शौर्य का।
हरा उत्साह,विकास का,शांति सन्देश लाया।।
अशोक चक्र काल प्रवाह शाश्वत सूचक बना।
तिरंगा पूरी आन,बान,शान से सदा फरफराया।।
नोजवानों के जोश,शक्ति से अभिभूत भारत रहा।
दुनिया में नित नाम,यश का डंका  बजाया।।
युद्ध मैदान में शक्ति काली ने रौद्र रूप दिखाया।
शिव स्वरुप फौज़ ने जल,थल,नभ तांडव रचाया।।
शांति दूत बन कर सदा विश्व भाईचारा बढ़ाया।
"वसुधैव कुटुम्बकम"का मन्त्र जन-जन सिखाया।।
सब हों प्रसन्न,सबमें नित तेज़ स्वाभिमान रहे।
विकास गीत सबके लिए माँ भारती ने गुनगुनाया।।

Monday 8 August 2016

मोर दास कहाइ नर आसा। करइ तौ कहहु काह बिस्वासा।।७/४५/३ #ramcharitmanas #uttarkand




मोर दास कहाइ नर आसा। करइ तौ कहहु काह बिस्वासा।।७/४५/३
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श्रीरामचरितमानस के उत्तरकांड में श्रीरामजी अपनी प्रजा के सम्मुख जो अपने विचार रख रहे हैं उनमें यह एक चौपाई बड़ी मार्मिक और गूढ़ है। प्रायः हम अपने आप को रामभक्त मान इतराते हैं और यह भी मानने का दावा करते हैं की श्रीरामजी की हम पर अनन्य कृपा है। सो यह तो बड़ी अच्छी बात है लेकिन यह सब कथनी में है करनी में तो वस्तुतः बड़ा भेद है। इसी ओर रामजी इशारा करते हैं। दरअसल सांसारिक व्यवहार में हम इतने आकण्ठ डूबे रहते हैं कि हमें पता ही नहीं होता कि हम क्या कहते हैं और क्या आचरण प्रत्यक्ष करते हैं। हमारा पूर्ण समर्पण श्री राम चरणों में होता ही नहीं हैं। हम तो केवल मुँह दिखाई करते हैं। थोड़ा सा लाभ दिखने पर हम किसी के भी आगे दंडवत हो जाते हैं। हमें लगता है ये आदमी हमारे काम का है तो बस हमारी परिक्रमा उसके आगे पीछे शुरू हो जाती है। कई बार तो स्थिति यह होती है कि व्यक्ति उच्च प्रशासनिक ओहदे में है,सामाजिक रूप से नामी-गिरामी है, आर्थिक रूप में अत्यंत श्रेष्ठ है या जोड़-तोड़ में अव्वल हे तो हम उसके इतने मुरीद रहते हैं इतने पलक-पावंडे बिछा उसका अभिनन्दन करने को व्यग्र रहते हैं की पूछो मत। और ये प्रक्रिया हमारे मस्तिष्क में हर समय चलती रहती है। हमें तत्काल में कोई काम उससे न भी हो तो भी हम उससे हर समय डरे,सहमे रहते हैं। उसके आगे उसका प्रिय बनने के लाखों जतन जाने-अनजाने करते रहते हैं। बस इसी कामना से कि वो हमसे रुष्ट न हो जाए। हमारी कही किसी बात को अन्यथा न ले ले।  श्रीरामजी जो सबके कारण हेतु हैं उन पर हमारी नज़र जाती ही नहीं है। "चलो छोड़ो सबको,अपने राम को मनाएं "ऐसा भाव कहाँ कितनी बार हमारी कठिनाईओं मुश्किलों दुःख,तखलीफ में आता है?वैसे ऐसा नहीं है कि हम ख़राब समय में ईश्वर का स्मरण नहीं करते हैं। खूब करते हैं। धुप,दीप,मेवा,मिष्ठान,माला,जप,यज्ञ क्या नहीं करते हैं। उसे भी बड़े-बड़े प्रलोभन देते हैं मानो हम न देंगे तो उसका गुज़ारा ही नहीं हो पायेगा। लेकिन वो  चाहता  है जो,वो कहाँ दे पाते हैं। अपना मन कहाँ दे पाते हैं उसे। खाली नाटक जितने चाहे करा लो। कभी-कभी तो पराकाष्ठा होती है कि हम उसको अपना मनोवांछित कार्य सौंप कर भी उसको सहूलियत करने का भी इंतजाम करने लगते हैं मसलन हमारा नॉकरी में ट्रांसफर हो रहा है तो उसमे भी एक दो या तीन विकल्प रख देते हैं। प्रभु अच्छा यहाँ नहीं तो वहां करवा देना और वहां भी नहीं तो ये तीसरे विकल्प में तो कर ही  देना।मानो सारे जहाँ का कार्यपालक अब इतना तुच्छ हो गया कि उसे भी स्पेस चाहिए,सहुलियत चाहिए। पहले तो क्या वो अपने भक्त को इधर-उधर दौड़ाएगा?और अगर दौड़ाएगा तो इसमें भी भक्त का हित  ही तय होगा। तो हम उस पर ही क्यों नहीं सब छोड़ देते। चलो ये नहीं तो सर्वशक्तिमान मानते हुए एक स्थान विशेष का आग्रह/दुराग्रह (जो भी हो)क्यों नहीं कर  लेते। अगर उसने हमें सुधारने की ही ठानी है तो क्या लखनऊ क्या काशी?सबहीं भूमि गोपाल की। ज़र्रा-ज़र्रा उसका पत्ता-पत्ता उसका। एक छन में तो हमारे सारे सारे संकल्प-विकल्प वो भुला सकता है। " करहिं विरंचि प्रभु,अजहिं मसक से हीन'तो जब ऐसे परम पुरुषोत्तम की बाहं  थाम ली तो फिर संशय कैसा।  दूसरे किसी व्यक्ति की शरण का क्या ओचित्य?वो भला हमारे कितने और किस-किस प्रश्नों का समाधान दे सकता है भला। अंततः शरण तो उस  करुणा सागर पर ही जा कर ठौर पायेगी। वो ही हमारे प्रश्नों का सटीक समाधान दे सकता है क्योंकि उन प्रश्नों को रचा  भी तो उसने ही है ,हमारे लिए। और जब रामजी स्वयं मूर्छा से जगा रहे हों ,याद दिला रहे हों कि भक्त तुम मुझे अपना मानते हो तो फिर अन्य के आश्रित क्यों होते हो?उठो, जागो,चेतन हो और अपने मेरे संबंधों को पहचानो तो विलम्ब किस बात का करें?तो भक्त तो बहुत कहला चुके उनका। अब उनका एक कहना भी मान कर   चल पडें दो कदम इस संसार सागर में तो यह भवसागर गऊ के खुर जितना ही छोटा हो जायेगा। जय श्री राम। 

Friday 5 August 2016

#RIO #OLYMPIC--2016(small poetry)

मिशन ओलंपिक का बज गया बिगुल।
हार हो की जीत हो मच गया शोरगुल।।
उछलते-कूदते, दौड़ते-भागते।
देशभक्ति का अपना गीत गाते।।
एड़ी-चोटी का जोर लगा रहे।
एथलीट सारे दमखम दिखा रहे।।
स्वर्ण, रजत, कांस्य कुछ मिले।
करतब जी तोड़ सब कर चले।।
कुश्ती, दौड़, निशानेबाजी, तैराकी।
खेल अनेक तीरंदाजी और हॉकी।।
207 देशों की भागेदारी।
28 खेल 306 स्पर्धा की तैयारी।।
5 से 21 अगस्त रस्साकसी मुकाबले की।
"रियो"हो जीत बस खेल भावना की।