बंदउँ संत असज्जन चरना


बंदउँ संत असज्जन चरना। दुखप्रद उभय बीच कछु बरना।।
बिछुरत एक प्राण हरि लेहिं। मिळत एक दुख दारुन देहिं।।


हमारे जीवन में प्रायः दुष्ट लोगों की संगत/साथ का अवसर मिलता है (वैसे तो सामान्यतः  हम सब भी उससे अछूते कहाँ हैं?यहाँ दुष्ट के रूप से आशय है जिसमे अवगुणों की धूल,गर्दा,मिटटी शांत ,स्थिर न होने से व्यक्तित्व  के सरोवर में बाहर से ही साफ-साफ़ दिखाई देने लगती हैं) लेकिन गंभीरता से विचारें तो वो भी बुरा नहीं है। बस आपको उस अवधि को थोड़ा विवेकपूर्वक व्यतीत करने का हौसला जुटाना पड़ता है। दरअसल यही आपकी परीक्षा का काल भी होता है। आप अपने को और भी अधिक मजबूती से कसते हैं। बेहतर आत्मनिरीक्षण करते हैं -अपने आप का। ऐसा करने पर आपको सहज ही पता लगने लगता है की फलां तार कहाँ फलां जगह कम कसी है  फलां जगह बहुत अधिक कस गयी है। याने चूक का ज्ञान होने लगता है,क्योंकि वो लोग कृपापूर्वक आपको यह बताते/दिखाते रहते हैं की अब आपमें लोभ,काम ईर्ष्या,मोह आदि अवगुणों का आधिक्य होने लगा है। इसी कारण"निंदक नियरे" रखने की नेक सलाह हमारे विज्ञ जन हमें दे गए हैं। इस प्रकार अपने बेसुरेपन का ठीक-ठीक ज्ञान हम प्राप्त कर सकते हैं। आपका धैर्य,सब्र बढ़ जाता है। ईश्वर की ओर दृष्टि/रुझान और अधिक गहरा,पैना होने लगता है। कोई हल्का सा भी आपका सहयोग करता है ,मीठा दो शब्द बोलता है तो ह्रदय कृतज्ञ हो जाता है। फिर वैसे भी कोई दुष्ट से दुष्ट भी कहीं न कहीं प्रीत/अमृत का घट अपने भीतर कृपण की तरह संभल कर रखता ही है। क्योंकि हम सभी अमृत पुत्र तो हैं ही।क्या आंगुलिमाल से,उस कठोर,शुष्क,हिंसक व्यक्ति से बुद्ध ने उसके भीतर छुपे अमृत घट को प्राप्त करके नहीं दिखाया?तो इस दुनिया में ऐसे हज़ारों,हज़ार उदाहरण बिखरें पड़े हैं। असल में हम ही कुछ जल्दी में हैं। भीतर तक जाने में,ह्रदय पर दस्तक देने में देर तो लगनी स्वाभाविक ही है। पर कोशिश तो करते रहनी पड़ेगी,तभी बात बनेगी। इसमें पहले स्वार्थ तो अपना ही है। तुलसीदास जी ऐसे ही नहीं असज्जन के प्रति प्रीत की बात कह गए होंगे। 

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