Wednesday, 4 September 2024

६८८: ग़ज़ल: हम जी लेते हैं हर हाल में

हम जी लेते हैं हर हाल में रोने-गाने का सवाल ही नहीं।
हां  दर्द दूसरों के हम लिखते हैं कलाम में कहीं न कहीं।।

जद्दोजहद के संग बरसना लाजमी है हर‌ गाम जिंदगी में।
बस उसे तराश कर हीरा बनाने की‌ तेरी कवायद‌ है सही।।

वो मगरूर अगर है तो कल खुलेगी आंख खुद ब खुद से।
कब और कैसे सिखानी है पता है कुदरत को उसे मनाही।।

होशोहवास में वसियत दिल की जब कर दी तेरे नाम पर।
अब कहां इस जनम मिटेगी अंगूठे के निशान की स्याही।।

"उस्ताद" ये खुदा जाने अभी कैसे-कैसे दिन देखने हैं हमने।
यूं बड़ी है उसकी इनायत जो आज भी बेहतरीन कट रही।।

नलिन "उस्ताद" 

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