Saturday, 19 June 2021

गजल 347:बात बनती नहीं

बियाबान में जा कर भी बात कहीं बनती नहीं।
बेचैनी ये दिल की आसानी से कभी मिटती नहीं।।

यूँ तो है शहर भी जंगल मगर कंक्रीट का।
वहशी जानवरों की कमी जहाँ रहती नहीं।।

पलकों में संजोए तो हैं हजारों इन्द्रधनुषी सपने।
यार तकदीर मगर रंग बगैर तदबीर* भरती नहीं।।*मेहनत 

माँ-बाप से बढ़कर दुलारती है वो गोद में अपनी।
कुदरत की मगर फिर भी कदर हमसे बनती नहीं।।

बना लेता है आदमी "उस्ताद" जाने कैसे-कैसे।
रूहे आवाज उसे अपनी ही सुनाई देती नहीं।।

@नलिनतारकेश 

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