Wednesday, 9 June 2021

गजल-गजल:337 होकर आफताब भी

होकर आफताब* भी अंधेरे से गुजर रहा हूँ।* सूर्य 
मंजिल है दूर बहुत मेरी चल तो मगर रहा हूँ।।

हौंसला देता कोई नहीं बियाबान सन्नाटा है पसरा। 
वायदा किया था जो खुद से वो कहाँ मुकर रहा हूँ।।

रेत है,धूप है कड़ी,चलने को कतई तैयार पाँव नहीं। 
है ऐतबारे रूह कहीं ना कहीं सो सफर कर रहा हूँ।।

खुदा लेता है कड़ा इम्तहां ये सुना बहुत था।
पीठ पर उठा जख्म सारे उफ न कर रहा हूँ।।

"उस्ताद" बनाया है उसने तो हमें बड़ी सिफत* से।
* खासियत 
अंगारों पर चलते हर रोज फिर भी कहाँ मर रहा हूँ।।

@नलिनतारकेश 

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