राम तुम्हारी मुस्कान
सरल,सहज निर्मल
मुझको पास बुलाती है।
दुर्भाग्य मगर देखो मेरा
माया के नयन जाल में
मृगतृष्णा भरमा कर मुझको
हर रोज बाण चलाती है।
मैं बिंध,रक्त देख
चिल्लाता,सकुचाता हूँ।
कुछ छन फिर तुम्हें देख
खुद को धीर बंधाता हूँ।
पर फिर भी न जाने क्यों ?कैसे?
हर बार तुम्हारे कृपा रूप से
खुद ही दूरी बढ़ा लेने से
अमृत से वंचित रह जाता हूँ।
मायाजाल मैं फँस कर खुद ही
तुम पर दोष लगाता हूँ।
माया के चक्कर जो भी पड़ता है उसे न तो माया मिलती है न ही राम मिलते हैं !
ReplyDelete