Sunday 7 September 2014

215 - माया की धूल,पंक में












  • माया की धूल,पंक में 
  • मैने खूब गुलाटी मारी 
  • लेकिन जब भरी धूल 
  • आँख,मुख में भारी 
  • तब जा के सुधि आई 
  • मुझको राम तुम्हारी। 

  • हर कोई हँसता था तब मुझ पर 
  • जैसे वो हो संत बड़ा ही ज्ञानी 
  • लेकिन मेरी विपदा को दूर कर सके 
  • ऐसा नहीं मिला कोई मुझको प्राणी। 

  • मैं अपने ही क्रंदन से त्रस्त पड़ा था 
  • जग को घाव दिखा नहीं सकता था 
  • मजबूर,विवश मैं लाचार बड़ा था 
  • सच तो ये कि तुझपे भी विश्वास नहीं था। 

  • पर मरता-पड़ता,आखिर क्या न करता
  • जैसे- तैसे,झूठ-मूठ को  नाम तेरा था रटता
  • वैसे तो मैं काम को ही  नित था ध्याता 
  • लेकिन कृपा से तेरी वो राम नाम बन जाता।

  • अब जब तूने अपने अंगराग से 
  • मुख मेरा  कुछ धुलवाया है 
  • सच कहता हूँ इस जीवन का 
  • असल स्वरुप दिख पाया है।  
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