Tuesday 13 February 2018

गतांक सेआगे:(भाग-5)#कालचक्र #कर्म #कृपा

गतांक सेआगे:(भाग-5)#कालचक्र #कर्म #कृपा
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ज्योतिष संकेतों का विज्ञान है।जीवन पथ का रोड मैप।इसको सही रूप में समझते हुए हम अपने जीवन को बहुत सहजता से जी सकते हैं।खासतौर से कठिनाइयों के दौर में।जब हम जीवन में आने वाले झंझावतों को स्वीकार कर शान्तचित्त याने"कूल"रहते हैं,उसे स्वीकार लेते हैं तो समझिए आधे से अधिक मुश्किलें तो उसी क्षण समाप्त हो जाती हैं। "स्वीकारना" एक बहुत बड़ा एसेट है।अपनी कमियों को स्वीकारने से हम अधिक बेहतर दृष्टि से अपने भविष्य का आकलन कर सकते हैं और उसे बेहतर दिशा में मोड़ सकते हैं।हमारे जीवन में आने का उद्देश्य क्या है?किस तरह के क्रियाकलाप हमारे व्यक्तित्व के अनुरूप हैं और हमें कहां किस क्षेत्र में अधिक संभावना है आदि-आदि अनेक बिंदु हैं जिस पर ज्योतिष विद्या अपने आलोक से हमारी एक अच्छी मार्गदर्शक बन जाती है। सबसे बड़ी बात यह हमें आशावान बनाती है। अंधेरी गुफा में चलते हुए हमें रोशनी की किरणों के प्रति आश्वस्त करने वाली विद्या है यह। दूसरे यह हमें एक बेहतरीन सीख जो तुलसीदास जी के शब्दों में "कोउ ना काहू को सुख दुख कर दाता,निज कृत करम भोग सब भ्राता" या गीता जी के शब्दों में "जैसा कर्म करेगा वैसा फल देगा भगवान" भी देती है।अब ऐसे में दूसरे के प्रति हम रोष कैसे करें और तो और ईश्वर पर भी आरोप-प्रत्यारोप किस मुंह से लगाएं। सूर्य, चंद्र, मंगल, राहु आदि नवग्रह तो मात्र एक प्रतीक हैं हमारे पूर्व,वर्तमान और भविष्य के कर्मों का लेखा-जोखा रखने वाले और अपनी-अपनी दशाओं में उन्हें निर्विकार भाव से उसे हम तक पहुंचा देने वाले। ना तो वो कठोर हैं ना उदार।वे तो जो फल हमारे जन्मांग में लेकर उतरे हैं उनका समस्त दायित्व तो अपने कर्मों से हमने स्वयं ही रचा है।हां,अब भविष्य में उनकी शुभ या वक्र दृष्टि का ज्ञान हमें यदि ज्योतिष विद्या के द्वारा हो रहा है तो अवश्य ही कुछ हद तक और कभी पूर्णरुपेण भी (जिसकी जानकारी यह गूढ विषय दे सकता है )उससे उबरने के लिए हमें कृत संकल्प हो सकते हैं।
ज्योतिष और तंत्र-मंत्र विद्या पर मेरा प्रारंभिक रुझान अपने मौसा जी स्वर्गीय हरिनंदन जोशी जी के माध्यम से हुआ।दरअसल उनका (सेवानिवृत्ति के पश्चात)जाड़ों में प्रत्येक वषॆ  अल्मोड़ा से आकर लंबे समय तक हमारे घर में प्रवास करना इस में मददगार बना। लोग अपनी समस्याओं के निदान हेतु और जन्म पत्रिका पर विचार करने हेतु उनसे मिलने आते रहते थे। मैंने देखा कि लोग उनका बड़ा आदर-सम्मान करते। यथासंभव  धन एवं भेंट आदि भी देते थे।वैसे मैंने उन्हें धन को महत्व देते कभी नहीं देखा।देवी की उपासना उन्हें अत्यंत प्रिय थी ।अतः "दुर्गा-सप्तशती"का पाठ वे नित्यप्रति करते थे।जान-पहचान या किसी अपरिचित के घर भी जा कर बिना किसी मोह या लालच के वह "दुर्गा-सप्तशती" का पाठ पूरे भाव से करते थे ।उनके पास अपने गुरु कृपा प्रसाद से प्राप्त विद्या थी जिसके माध्यम से वह तंत्र मंत्र आदि के द्वारा भी लोगों की समस्याओं का निवारण निःशुल्क रूप से ही करते थे।कोई स्वयं जिद से कुछ दे जाए तो अलग बात थी। उनके स्वभाव में फक्कड़पन और मस्ती साफ झलकती थी। थोड़ा अधिक उम्र में मुझे अपने मामाजी स्वर्गीय भुवन चंद पांडे के विषय में ज्ञात हुआ कि वह भी ज्योतिष को विधिवत प्रोफेशनल तरीके से करते हैं। हालांकि वह भी रिश्तेदारों और अपने परिचितों को निःशुल्क रूप से ही सेवा देते थे। उनका सामाजिक दायरा बहुत बड़ा था।  लखनऊ में महानगर स्थित रामलीला समिति के प्रारंभिक स्थापक के रूप में उनकी अग्रणी भूमिका थी।वे लोगो के विवाह हेतु संबंधित पक्षों को मिलाने में रुचि लेते थे सो "ब्याहकर पांडेज्यू" के रूप में भी जाने जाते थे।तो वहीं लोगों के घरों का निर्माण करने में भी अपनी निःशुल्क सेवाएं देने के चलते "ठेकेदार ज्यू" के नाम से भी प्रसिद्ध रहे।हमारे घर के बनवाने और अग्रजों के विवाह में उनकी महती भूमिका रही। वैसे मिलैट्री में अपनी सेवाएं देने से वो कुछ लोगों में "सूबेदार ज्यू" से भी जाने जाते रहे।कुछ समय आप महर्षि  महेश योगी के एक प्रोजेक्ट में बतौर ज्योतिषी अनेक विदेशी शहरों में अपनी भारतीय या कहें "वैदिक-ज्योतिष"का झंडा गाड़ उसे लोकप्रिय बनाने में सफल रहे।मैं अपने  अंतर्मुखी स्वभाव के चलते यूं दोनों से ही बहुत कुछ ज्यादा नहीं सीख पाया।मामा जी को तो एक ज्योतिष असिस्टेंट की जरूरत भी थी लेकिन अपने ढीले-ढाले और अपने में मगन रहने के स्वभाव के चलते मुझे यह लगा कि इतने जुझारू और कर्मठ इंसान के साथ मेरी जुगलबंदी बहुत सफल नहीं रहेगी।कालचक्र या नियति को भी संभवतः यह मंजूर नहीं था क्योंकि मां के जोर देने पर एक दिन अनमना सा गया भी,नई शुरुआत के लिहाज से लेकिन अगले ही दिन पिताजी का स्वर्गवास होने से मामला वहीं शांत होकर रह गया।अपने 26 वें वर्ष में पिता जी की असमय मृत्यु मेरे लिए दुर्भाग्यपूर्ण इसलिए और भी अधिक थी क्योंकि मेरा उनके साथ याराना सा था।उनके साथ लगभग हर माह प्रत्येक रविवार को सैर-सपाटे पर निकल जाना,कुछ ठंडे-गर्म आइटम से पेट पूजा करना और नंदन,लोटपोट,चंपक,पराग,फैंटम जैसी कोई बाल पत्रिका लेकर लौटना सामान्यतः एक नियम सा बन गया था। प्रकृति ने मुझे इस दुःखद घटना का संकेत  उसी दिन दे कर संभवत मुझे हर हालात मैं जीने का हौसला देना चाहा और विधि के विधान के प्रति पूर्ण समर्पण भी सीखाना चाहा होगा,ऐसा मुझे लगता है। पिताजी का स्वास्थ्य कुछ दिन से ढीला था।उन्हें खाने की इच्छा नहीं हो रही थी और गैस की अधिकता से सीने में जकड़न व  बेचैनी लग रही थी तो उन्हें हम डॉक्टर के पास ले जाने लगे।तभी पोस्टमैन मुझे एक लिफाफा दे गया। उसमें मेरा नाम अंकित था। उस उस समय मुझे फुर्सत नहीं थी सो उसे संभाल तुरंत ही हम डॉक्टर के पास दौड़े। लेकिन उसने बिना कुछ हमें बताएं,हिदायत दिए तुरंत बिना देर किए मेडिकल कॉलेज एडमिट कराने को कहा मगर वहां स्कूटर से ले जाने पर बीच रास्ते में ही उनकी मृत्यु हो गई।ऐसा अस्पताल में पता चला।उन्हें दिल का दौरा पड़ा था।बाद में जब एक दिन उस लिफाफे को खोला तो वो एक संपादक का पत्र था।वो अपनी पत्रिका में पाठकों के प्रश्नों को लेकर मुझ से ज्योतिषीय समाधान देने हेतु एक नियमित स्तंभ पर मेरी सहमति के इच्छुक थे।बाद में मैंने उन्हें 2-3 पत्र अपनी सहमति के भेजे भी मगर उनका जवाब नहीं आया।वह आना भी नहीं था शायद,क्योंकि वह मात्र एक संकेत के रूप में था।जो मुझे बाद में समझ में आया क्योंकि उस पत्रिका का नाम ही था "कुदरत का फैसला"।
शेष  पुनः••••••
@नलिन #तारकेश (11/2/2018)

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