Tuesday, 13 February 2018

गतांक से आगे:भाग-6

गतांक से आगे:(भाग-6)#कालचक्र #कर्म #कृपा
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विगत अंक में "कुदरत का फैसला" के माध्यम से जो मुझे संकेत मिला वह संयोग हो, भावनात्मक उछाल हो ऐसा नहीं है। दरअसल मुझे जो लगता है कि भूत,भविष्य, वर्तमान जैसा कुछ है ही नहीं।यह तो हमने अपनी सुविधा के लिए बना लिया है क्योंकि हम "समग्र-काल"को एक रूप में नहीं देख पाते या देख नहीं सकते (प्रायः)।श्री कृष्ण जैसा कर्मयोगी/परमेश्वर जब "दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम्" (11/08) कृपापूवॆक  जीव-"अर्जुन" को अपने कर-स्पर्श या अन्य रूप से "दिव्य-दृष्टि"देता है तो ही यह सब संभव हो पाता है। दरअसल मेरे साथ घटी घटना तो संयोग के रूप में व्याख्यायित की भी जा सकती है लेकिन बावजूद इसके सृष्टि के कुछ गूढ़ रहस्यों के प्रति उसमें चिंतन-मनन के छोटे ही सही, बीज/संकेत तो हैं ही।यह अलग बात है कि हमारी प्राथमिकताएं आज इस पर विचार को समय का अपव्यय मानती हों। लेकिन हमारे ऋषि-मुनियों(आज के संदर्भ में उन्हें प्रकृति की प्रयोगशाला में कार्यरत वैज्ञानिक/अन्वेषक कह सकते हैं)ने इस प्रकार के अनेक प्रयोग किए हैं।और आज भी हम उन से लाभांवित हो रहे हैं। अस्तु।
"यत् पिंडे तत् ब्रह्मांडे" या सरल शब्दों में "कंकर- कंकर में शंकर" जो कहा गया है वह ऐसे ही नहीं कहा गया है।वस्तुतः हमारी नाल ब्रह्मांड से जुड़ी है या अन्योन्याश्रित रूप में ब्रह्मांड की नाल हमसे जुड़ी है।लेकिन बीच में माया का जो ये कोहरा(फाॅग)है उससे मन-मानस पर  प्रतिबिंब धुंधला जाता है।कई बार तो यह कतई गहन काला हो जाता है कि कुछ नजर ही नहीं आता।किसी भक्त ने इसी स्थिति को अपने भजन में कलमबंद कर लिखा है"दिल के दर्पण को सफा कर बैठ एकांत में हरी को ध्यायेगा तो हरी मिल जाएगा,••••सोई परम पद पायेगा।(पंडित भीमसेन जोशी द्वारा गाया एक भजन)तो जैसे-जैसे हमारा हृदय निर्मल,साफ होने लगता है उतनी ही स्पष्ट वह तस्वीर पूरी की पूरी, कायनात की हमारे सम्मुख उतर के आ जाती है।योगी जन जो भूत,भविष्य को देख सकते हैं वह भी अपनी निश्छलता, निमॆलता,पारदर्शिता के चलते ही देख पाते हैं। ऐसी ग्रेविटेशनल फोर्स( एक रूप में,आसान शब्दों में),मुक्त अवस्था में जब कभी हम पहुंच पाते हैं फिर चाहे कुछ ही देर को तो हम जैसे सामान्यजन भी उसे अनुभूत कर पाते हैं।क्योंकि तब हमारा "मैं" संकुचित नहीं रहता। अनंत विस्तार ले लेता है।संवेदनशील प्रेमी, भक्त, रसिक जनों के साथ यह घटना थोड़ा अधिक घट सकती है क्योंकि वे अपने प्रेमी से,वांछित वस्तु/व्यक्ति से गहरा तादात्म्य/लगाव जल्द ही बैठा लेने में सफल रहते हैं ।
हमने,आपने,सभी ने अपने जीवन में कभी ना कभी देखा,सुना,अनुभूत किया होगा कि हमारी मां हमसे दूर रहकर भी हमारी परेशानी/ व्याकुलता के दौरान अपने को इस दौरान बड़ा अनमना सा/फड़फड़ाहट सी स्थिती में पाती रही।निदा फाजली (शायर )ने इसका सटीक चित्रण किया भी है :"मैं रोया परदेस में, भीगा मां का प्यार।दुःख ने दुःख से बात की बिन चिठ्ठी बिन तार"।ऐसा ही हाल प्रेमियों का, भगवान की प्रीत में डूबे भक्तों का होता है। स्त्रियों में खासकर माताओं में यह गुण स्वाभाविक रूप से परिलक्षित होता है।शायद इसलिए और भी (उनकी संवेदनशीलता के कुदरती गुण के अतिरिक्त)क्योंकि नौ माह अपने उदर में निरंतर हमारा पालन पोषण करने के कारण उनका हमारे तन-मन से गहरा तादात्म्य हो जाता है,एकरूपता हो जाती है।जिसे हम सिंक होना भी कह सकते हैं ।अभी 2 वर्ष पूर्व मेरी मां के देहांत की अर्धरात्रि बब्बी,(बड़ी भाभी जी की मां )को ऐसा स्पष्ट आभास हुआ कि मां उनके सम्मुख खड़ी हो विदा लेने आई है। उन्होंने पूछा भी कि बिना चप्पल पहने कहां जा रही हो पर माॅ ने जवाब नहीं दिया।वह तो उनके दर्शन हेतु ही गईं थी।असल में दोनों की प्रीति एक दूसरे के प्रति गहरी थी।सो इस तरह का संकेत मिलना कोई बहुत विलक्षण नहीं। प्रकृति तो सदैव प्रेम से,भाव से,विश्वास से ही चलती आई है। प्रेम अपना आकार जितना व्यापक करता जाता है प्रकृति/कुदरत/कायनात भी उतना ही नतमस्तक हो हमें हमारी झोली में ऐसे अनमोल कृपा के अबूझ रत्नों की जगमगाहट से चमत्कृत करती रहती है।प्रकृति तो अन्नपूर्णा है।जगत जननी है। माॅ ही अपने शिशु को वात्सल्यवश अपने आंचल में छुपा पौष्टिक अमृतमई दुग्धपान कराती है। तभी उसे जगत के रहस्य को अनावृत करने, उन्हें बूझने की विवेकपूर्ण दृष्टि मिलती है।इसलिए ही शंकराचार्य जी ने कहा "कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति" जय मां भवानी। कम्रशः ••••••••••••

@नलिन #तारकेश(12/02/2018)

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