रिश्तों के ये दरख्त फलते-फूलते नहीं अब।
मिलते हैं लोग मगर घुलते-मिलते नहीं अब।
सब हैं अपने में ही गुमशुदा से रहते।
दीवारें फसलों की तोड़ते नहीं अब।।
पाला-पोसा औ हर घड़ी कलेजे से लगाया।
बच्चे कदर उन मां बाप की करते नहीं अब।।
जिस्म को संवारने में इस कदर मशरूफ हैं सब।
रूहे पाक भी है कोई शय पहचानते नहीं अब।।
बहुत कुछ दिया है परवरदिगार ने हमें।
दुआ छोड़,तलाबेली* से बचते नहीं अब।।*लालसा
बूढे बुजुगॆ से देते थे घना आसरा जो दरख्त।
शहर तो छोड़ो ये गाॅव में भी दिखते नहीं अब।।
सच्चे शागिर्द में होता है छुपा आलिम* उस्ताद।*ज्ञानी
आसां सी बात मगर लोग समझते नहीं अब।।
@nalin#ustaad
I am an Astrologer,Amateur Singer,Poet n Writer. Interests are Spirituality, Meditation,Classical Music and Hindi Literature.
Thursday, 13 June 2019
165-गजल
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