फूट रहे हैं सूखे दरख्त में प्यार के कल्ले मेरे। सुना जबसे बहार बन तू आ रहा बंगले मेरे।
सजदे को झुकना तो चाहूं पर झुकूं कैसे।
लगता उम्र हो गई इंतजार की सांवले मेरे।।
नूरे खुदा क्या यूं ही उधार मिलता है कहो तो जला हूॅ दिन-रात तब हैं कहीं लब खिले मेरे।
तस्सवुर मैं तू मेरे हर वक्त बना रहे बस इतना कर।
रूबरू हो सकूं तुझसे,कहां मुमकिन फैसले मेरे।।
लो रमजान का मुकद्दस माह भी बीत गया हर बार सा।
ए अमन के चांद बता असल चमकेगा कब कबीले मेरे।।
नदी,परिंदे,दरख्त सभी तो हैरां,परेशां हैं कायनात के।
या खुदा तरक्की की ये कैसी कहानी गढते अगले मेरे।।
दर पर तेरे आने का इरादा छोड़ दिया "उस्ताद"अब तो।
मौजूद हर जगह तो करा दीदार जो नसीब बदले मेरे।।
I am an Astrologer,Amateur Singer,Poet n Writer. Interests are Spirituality, Meditation,Classical Music and Hindi Literature.
Wednesday, 5 June 2019
156-गजल
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