तपता चाबुक ले अंधाधुंध वार कर रही। कातिलाना धूप तो जीना दुश्वार कर रही।
दरख़्तों के होंठ वहशी बन सिल दिए हैं।
सड़क में आवाजाही चीत्कार कर रही।।
पौधे,परिंदे,आदम सब के हलक खुश्क हैं। ग्लोबल वार्मिंग रोज जो फूत्कार कर रही।
पानी,हवा,आसमां,धरती सब लुटे-पिटे से। हमें बचाओ ये कायनात पुकार कर रही।। जरा-जरा सी बात पर सिर फुट्टअव्वल की नौबत।
गरमी मिजाजे तल्खी का इजाफा बेशुमार कर रही।।
संगमरमर से अपने गुलिस्ताए ताज तो सजा लिए।
मौजे आरामतलबी दिक्कतें अब हजार कर रही।।
उस्ताद हवस की आग ये हमने ही लगाई है। अंधी योजनाएं बस धी की बौछार कर रही।।
I am an Astrologer,Amateur Singer,Poet n Writer. Interests are Spirituality, Meditation,Classical Music and Hindi Literature.
Monday, 10 June 2019
163-गजल
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