Friday, 27 September 2019

पिताश्री की कलम से

यह भी खूब रही
○●○●○●○●लघुकथा
हमारे कार्यालय के एक सहायक ने अपने 2 दिन के आकस्मिक अवकाश के आवेदन पत्र में यह उल्लेख किया कि उनके पैर में कील गड़ गई है जिसके कारण वे कार्यालय उपस्थित होने में असमर्थ हैं। 2 दिन बाद जब वे कार्यालयआए तो उनके दाहिने हाथ के अंगूठे में पट्टी बंधी थी और पैर ठीक अवस्था में प्रतीत होते थे। हमारे अधिकारी ने भी इस पर ध्यान दिया और अपनी आदत के अनुसार उनसे पूछ लिया "क्यों डियर पैर की कील क्या अंगूठे के रास्ते बाहर निकल गई है।अवकाश लेने वाले उन सहायक की दशा देखने लायक थी।भुलक्कड़ स्वभाव के कारण उन्हें याद ही नहीं था कि उन्होंने पैर में कील गड़ने का बहाना बनाया था।
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जब याद आ जाती तुम्हारी
○●○●○●○●○●○●○●कविता
जब याद आ जाती तुम्हारी।
अधीर मन हो जाता है भारी।
भाग्य की रेखाओं में खींची हैं-
विरह की घड़ियां तुम्हारी-हमारी।।
उस बार का वह मधुर मिलन।
जो हो गया अब एक स्वपन।
क्या फिर कभी मिलन के बादल-
बुझा सकेंगे मेरी विरह जलन?
पावस ऋतु के ये काले बादल।
पीड़ा छिपाए हुए अपने आंचल।
लायेंगे संदेश मेरा ये तुम तक।
बहाना न अपने नैनों का काजल।।
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होनहार
○●○●कविता
एक क्षण न पहले हो सकेगा,
कार्य तेरा इस जगत में।
जो लिख दिया है उस ईश ने,
हर बात होना अपने समय में।।
शक्ति कितनी ही खर्च कर,
नर अगर चाहे बदलना।
उस घड़ी का कठिन है,
अपने समय से पलटना।।
हो कर ही रहती है होनहार,
ये मानना पड़ता है सबको।
कर्तव्य करना धर्म अपना,
छोड़ उसी पर फल की आशा को।।
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