Saturday, 28 September 2019

गजल:253 आबे हयात

मुझे कहाँ रदीफ,काफिया मिलाना था।
अपन को तो बस दिल ये बहलाना था।।
जरा सी शिकायत से रूठ जाते हैं लोग।
सो कहीं न कहीं गुबार तो निकालना था।।
नजदीक रहकर भी जब तन्हा ही रहना हो। बेवजह फिर तो किसी से दिल लगाना था।। होठों पर पपड़ियाँ निगाहें गेसूओं से ढकीं।
चट्टान के नीचे एक गमे तो दरिया बहना था।।
सभी मुसाफिरों की मंजिल है आफताब*।
*सूरज(सूर्यात्माजगतश्चक्षु)
मकसद रूह का बस सजना-संवरना था।।
गर्म रेत चल के"उस्ताद"नंगे पाँव आ गया।
उसे तो हर हाल आबे-हयात* गटकना था।।
*अमृत
@नलिन#उस्ताद

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