Saturday 21 September 2019

गजल-247-दुखती रग

दुखती रग जो मैंने हाथ रख दिया था। 
कुछ कहे बगैर वो फफकने लगा था।।
नजूमी हूँ पढ़ पाता हूँ जो चेहरे के तासूर को।
खुदा की इनायत का ये एक छोटा सिला था।।कहें किससे भला तकलीफ और कौन सुने। सभी का हाल-बेहाल यहाँ एक जैसा था।। दफ्न कर नहीं सकते न ही कह सकते किसी से।
दर्दे सैलाब का दरिया रेतीली आँख रिसता था।।
निगाहों में चमक का तबसे अलग ही अंदाज है।
जबसे गुफ्तगू का उससे एक मौका मिला था।
लकीरों में हाथ की दिखते हैं चांद,तारे सभी। हाथ धोकर तभी तो"उस्ताद"पीछे पड़ा था।।

@नलिन#उस्ताद

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