Sunday 22 September 2019

गजल-248:रात दीवाली हो गई

असली-नकली की पहचान मश्किल बड़ी हो गई।
पेट में आजकल तो सबके ही लंबी दाढ़ी हो गई।।
अपने-पराए सभी चाल चलने में गहरी मशगूल हैं।
शतरंज की बिछी बिसात सी ये जिंदगी हो गई।।
सारे चैनल तो दिन-रात कानफोड़ू बहस कर रहे।
काजी जिसे बोलना था बंद उसकी बोलती हो गई।।
किताबें तो खंगाल ली बच्चों ने सारी की सारी।
कुछ हमसे ही देने में रिवायत*की कमी हो गई।।*परम्परा
प्रोडक्ट ही हो गए हों रिश्ते-नाते सभी जब।
एक-दो साल से ज्यादा कहाँ गारंटी हो गई।।
जिस्म से जेहन सभी खुले-बाजार से सजे हैं।
ये इज्जत-आबरू नीलाम सबकी हो गई।।
काम निकल जाए तो फिर कोई पूछता नहीं।
अब नई ये यूज एंड थ्रो की पाॅलिसी हो गई।
आँखों में"उस्ताद"जबसे इश्के-हकीकी* छा गया।*ईश्वरीय
लो हमारी तो दिन होली,रात दीवाली हो गई।।
@नलिन#उस्ताद

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