Sunday, 18 August 2019

गजल-205

घर मेरा दूर था फिर भी वो मुझसे मिलने आया।
उमस थी आसपास पर सुकूने हवा बनके आया।।
बता तू ही दोस्त था या था वो रकीब*मेरा।*शत्रु
जला कर घर मेरा जो मुझे बताने आया।।
ऊँचाई में उड़ते परिंदे तो देते हैं सुकून सबको।
न जाने फिर क्यों वो उनके पर कतरने आया।।
नाराज होना तो मेरा जायज था मगर ये बता।
तू भला दो कदम मुझे क्यों नहीं मनाने
आया।।
घाट फैलाए जो धोबी ने मर्दाने,जनाना कपड़े।
न हवा,न सूरज कोई नहीं फर्क बताने आया।।
पर्दानशीन रहना तो छोड़ दिया है अब उसने।
है शहर में रिवाज लेने का सेल्फी जबसे आया।।
जान पहचान कुछ न थी पर दिल बहुत बड़ा था।
दर्द भुला अपना तभी तो वो हमें हँसाने आया।।
दोस्ती में भला कब से हया,हिचक होने लगी।
लगा उसे गलत हूं मैं तो धौल जमाने आया।।देख रहा हूं बस चुपचाप बिना होठों को जुंबिश दिए।
बढ़ाने जख्म कौन तो कौन मरहम लगाने आया।।
जाहिलों की बस्ती रहने लगा है "उस्ताद" जबसे।
हर कोई पूरी शिद्दत उसे ही शागिर्द बनाने आया।।
@नलिन#उस्ताद

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