Sunday, 4 August 2019

गजल-199

मेरे भीतर में एक बच्चा साथ बसता है।
उमर बढ रही पर वो बच्चा ही रहता है।।
हर बड़ी-छोटी बात दखल खूब करता है।
सोता हूँ तो भी तो मुझे ये जगा दिखता है।।
बात-बात में मुझसे रूठ जाए ये अक्सर।
थक-हार इसे तो मनाना रोज ही पड़ता है।।
यार किससे कहूँ,सितम ओ नखरे इसके।
ये जब मुझे मेरा ही एक अक्स लगता है।।
ऐसा नहीं कि सिफॆ परेशानी का सबब हो।
कई बार खुश्बू सा भी ये बड़ा महकता है।।
बच्चा तो बच्चा ही है,शोख मासूमियत भरा।
जान-बूझ भला क्यों तू बेवजह बहकता है।।
जीतेगा जमाने भर का"उस्ताद"दिल तभी तू।
हर घड़ी जब तेरे मुताबिक ये बच्चा चलता है।।
@नलिन#उस्ताद

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