Wednesday, 7 August 2019

203-गजल

दफ्तरों में सांप-सीढ़ी खेला जा रहा।
चढा सीढ़ी,सांप से कटवाया जा रहा।। जमाने की जरूरतें इस कदर बदल रहीं।
रवायतों को भली भी मिटाया जा रहा।।
इल्मे इम्तहां से खौफजदा हैं मां-बाप, बच्चे।
मेहमाने खुसूसी भी घर से निकाला जा रहा।।
खुद की खातिर खजाना बहा दिया उसने।
अवाम को तो बस उल्लू बनाया जा रहा।।
निगाहें मय का असर गजब ये है जनाब।
हाथ का जाम भी अब तो छूटा जा रहा।।
यूँ तो मोहब्बत की तख्ती लगाए बैठा है  वो।
पीठ पीछे पर चुपचाप वार किया जा रहा।।
पड़े जो काम तो बड़े एहतराम बुलाता मिला।
अंगूठा वक्त इकराम मगर दिखाया जा रहा।।
हवा में दिखा तलवारबाजी,लूटें कुछ वाहवाही।
कलम का सिपाही यहाँ,बेमौत मरता जा रहा।।
"उस्ताद"लेता है सदके अपने साँवले सरकार के।
जो बनके अनजान रास पनघट रचाता जा रहा।।
@नलिन#उस्ताद

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