Saturday, 11 May 2019

136-गजल

समझ शराब को शरबत पी रहा हूं।
बड़े आराम नसीबे गुरबत* पी रहा हूं।।
*परवशता
आसान है जब कीचड़ आफताब*पर मलना। *सूरज
चुपचाप यारों की देखो तोहमत पी रहा हूं।।
मुश्किल तो था मगर जिन्दगी जी सका। परवरदिगार की जो सोहबत पी रहा हूं।।  मेहरबां हुआ वो हम पर इतना ज्यादा।
आंखों से अब उसकी जन्नत पी रहा हूं।। 
गलियों में तेरे शहर की जो इमामत* की थी कभी।*नमाज पढने का काम
यादे गम पुरानी शराब सी वो फुरसत पी रहा हूं।।
कौन जाए संगदिल जमाने से दिल लगाने। उतर खुद में अब रूहानी दौलत पी रहा हूं।।
गए दिन "उस्ताद" अब तो हंसी दिन हमारे। शागिर्दों कि आजकल नसीहत पी रहा हूं।।

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