Tuesday, 30 August 2022

458: ग़ज़ल

न उगलते बनता है न हमसे निगलते बनता है।
बड़ी पशोपेश में ये जिंदगी का सच रखता है।।

वो मुझसे रूठके कहीं दूर जा छुपा बैठा है।
मगर बताया ही नहीं क्यों खफा हो गया है।।

चलो हथेली में सरसों भी उगा लेंगे तेरे लिए। 
पर पता तो चले आंखिर हमें करना क्या है।।

बियाबान जंगल में बस टटोलते हुए बढ़ रही जिंदगी।
हाथ पर हाथ धरे भला कब तक कौन बैठ सकता है।।

भूत,प्रेत वहम है चलो हमने ये भी मान लिया।
डर तो मगर अब अपने साए से लगने लगा है।।

दिखाना ही पड़ेगा "उस्ताद" अब किसी पीर,फकीर को।
अगड़म-बगड़म,बेसरपैर की जाने क्यों रोज लिखता है।।

नलिनतारकेश @उस्ताद

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