Thursday, 11 August 2022

446: ग़ज़ल एक अटपटी सी

एक ग़ज़ल कुछ अटपटी सी
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दर्दे दिल को हमारे समझ सके बना कहाँ ऐसा आला है। शरबती निगाहों का यूँ भी बिकता बड़ा महंगा काढ़ा है।।

नादानियां बुढोती में कराती हैं अजब बचकानी हरकतें।
बुतखाने जाने की उम्र में हैं पूछते यहाँ,कहाँ मयखाना है।।

सीरत पर तो नहीं हां खुद की सूरत पर पूरा भरोसा था।
मगर खुलता ही नहीं मोबाइल के पासवर्ड का ताला है।।

किसी रकीब को देकर इज़्ज़त अफ़जाही से अपनी बहन। लेता है जो ता-उम्र बदला कसम से वही असल साला है।।

हर शहर में अपने कारीगरी से बड़ा कमाया नाम जिसने। हुजूर वो हुनरमंद फनकार मुँह में आपके ठुंसा मसाला है।

जुल्फें सफेद हो गई मगर दिल तो काला,स्याह ही रहा।
असल जिंदगी का "उस्ताद" यही तो गड़बड़झाला है।

नलिनतारकेश @उस्ताद

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