Saturday 20 August 2022

449:ग़ज़ल

 जाने वाले तो चले जाते हैं चुपचाप छोड़कर।

रह जाते हैं हम यहाँ बेबस बस हाथ मलकर।। 


बुजुर्गों के साए बरगद की घनी छांह से हमारे।

हर कदम जो रखते कड़ी धूप से हमें बचाकर।।


अतिथि कोई रहा ही नहीं जो आए बिन बुलाए।

इतराइए नसीब पर जो आ जाए कोई बुलाकर।।


कुदरत भी रंग बदल रही है देख अब हमारा चाल-चलन। गरजते हैं बादल कहीं तो बरसते है कहीं अलग जाकर।।


कौन बनेगा भला आजकल कहो किसी का यहाँ ज़मानती।

"उस्ताद" खुद से ही चली हैं जब हमने हर चाल छुपाकर।।


नलिनतारकेश @उस्ताद

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