Sunday, 28 August 2022

457:ग़ज़ल

है इश्क मेरा रंग ला रहा धीरे-धीरे।
निगाहों में चढ़ रहा नशा धीरे-धीरे।। 

बंधे घुंघरू पाँवों के हैं छनछनाने लगते।
गली में उसकी जब भी घुसा धीरे-धीरे।।

यूँ तो अमावस की रात थी काली,घनी बड़ी।
किया जमीं पर सितारों ने उजाला धीरे-धीरे।।

है होश कहाँ बेखुदी का आलम है छाया।
मुहब्बत में तेरी भूला हूँ दुनिया धीरे-धीरे।।

जब कभी सताते हैं दुनियाभर के रंजोगम मुझे।
बांसुरी होंठों से लगी तेरी सुनता सदा धीरे-धीरे।।

रब चाहे तो "उस्ताद" हर चाह होती है पूरी। 
मस्ती में तभी तो हूँ ग़ज़ल लिखता धीरे-धीरे।।

नलिनतारकेश @उस्ताद 

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