Thursday, 25 August 2022

455: ग़ज़ल

दर्दे चाशनी में डूबे जज़्बातों का सामना रोज करता हूँ। यारों का बस वही गम ग़ज़ल में ढालकर लिखता हूँ।।

जाने क्या बात है हर कोई करता है गमे इज़हार मुझसे। क्या करूँ बस इसे नेमत समझ चारागर भी बनता हूँ।।

बरसात होती है जब भी कभी झूमकर रंजोगम की। 
गुलों को बगीचे में अपने दिल के खिला देखता हूँ।।

चोली-दामन सा रहा है साथ अवसाद,कह़कहों का।
आयेगा तो सही कुछ देर ठहर दूसरा भी जानता हूँ।।

दर्द यूँ तो क्या कम है "उस्ताद" खुद अपनी झोली में।
कलेजे उठता है बवंडर तो सुन अपना भूल जाता हूँ।। 

नलिनतारकेश@उस्ताद

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