Tuesday, 23 August 2022

453: ग़ज़ल

जिंदगी का साथ यूँ तो निभाता रहा खामख्वाह। 
मगर अफसोस भी कभी नहीं हुआ खामख्वाह।।

गजब अफरा-तफरी का माहौल है छाया हुआ। 
ये सोच क्यों ज़ाया करूं वक्त भला खामख्वाह।।

बिछुड़ ही गए हैं जब हम किसी मोड़ पर आकर। 
अब वो लम्हे याद करके तो है रोना खामख्वाह।।

मौज में हर घड़ी दिखे बस ताजगी लिए दरिया।
बहते हुए कहाँ कुछ भी है सोचता खामख्वाह।।

जब तलक अमल में गहरे चस्पा नहीं होती बातें।
है किताबों को "उस्ताद" दोहराना खामख्वाह।।

नलिनतारकेश @उस्ताद

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