Thursday, 8 May 2014

नवधा भक्ति 






















नवधा भक्ति कहउँ तोहि पाहीं …… सोई अतिसय प्रिय भामिनि मोरे।
(अरण्यकाण्ड दोहा 34 से 35)

नवधा भक्क्ति कहता हूँ मैं तुझसे भक्त सुजान।
मन में पैठा ले तू इसको देकर पूरा ध्यान।।

संत चरण में बैठकी कर ले तू दिन-रात।
मेरी कृपा देगी तुझको प्रथम भक्ति सौगात।।

मेरे परम रूप की विविध कथा से कर ले जो तू प्यार।
सहज- सरल भाव से दूॅंगा तुझको दूजी भक्ति अपार।।

श्री गुरु चरण की सेवा में हो जाये जो निहाल।
पायेगा फिर तू  देखना तीसरी भक्ति तत्काल ।।

मेरी गुण राशि जितनी भी हैं अद्धभुत और अपार।
पाये चौथी भक्ति जो गाये तू छोड़ कपट व्यवहार।।

नाम मन्त्र को जप ले जो तू श्रद्धा और विश्वास।
पांचवी भक्ति देखना फिर तू पायेगा हर साँस।।

छठी भक्ति जो चाहे तो है पा सकता अनायास।
यम-नियम से रखना बस मन विरक्ति का वास।।

हर रूप, हर रंग में सर्वत्र मुझको ही जो देख पायेगा।
संत को मुझसे अधिक जान सप्तम भक्ति तू पायेगा ।।

जो मिले, जैसा मिले हर हाल में संन्तोष करना।
आठवीं भक्ति मिले बस निन्दा रस से दूर रहना।।

अखंड विश्वास मुझ पर सदा हर्ष-शोक से मुक्त रहना।
सब संग निश्छल व्यवहार से नवम भक्ति आधार पाना ।।

भक्ति एक भी इनमें से जो कोई जन पा जायेगा।
ब्रह्माण्ड में सारे वो ही मुझे सर्वाधिक भायेगा।।


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