Saturday, 3 May 2014

आंखिरी - भेंट



रात में चुपचाप
जब सो जाते हैं सब 
घोंसले बदलता हूँ 
इच्छा से ?  नहीं
विवश्ता ! मजबूरी से।
क्योंकि हर घोंसले पर
पहुँच जाते हैं
फ़न उठाये सांप
सचमुच जो की
दूध पीते हैं
मेरी आस्तीन के  भीतर।
लेकिन बचूंगा नहीं
दंशों से इनके
यह ज्ञात है मुझे
क्योंकि आजकल इनका
छेत्र इतना व्यापक है
कि एक-दो नहीं
अनगिनत,स्वछन्दता से
देख सकते हैं आप
घोंसले पर मेरे।
सांप को सांप कहुँ
यह सत्य - कटु सत्य - 'नहीं '
यह तो हैं मेरे अपने दोस्त जो
चूसते हैं - "चन्द  सिक्के "
जो कमाता हूँ मैं
तब-तक, जब-तक
मुझे चूस कर,झंझोड कर
मेरी एक -एक बूँद को
पसीने के बहाने से
जो मिली है मुझे
पिपासुओं की तृष्णा
शांत कर सकती है।
फिर - समय देते हैं
मेरे दोस्त मुझे
फलने - फूलने का
और जब देखते हैं
भरा-पूरा फिर से
गडा  देते हैं दंश
तब - तक चूसने को
जब तक मैं,छटपटा कर
नीला पड़कर,बेहोश नहीं होता।
और उसके बाद वही
अनवरत किस्सा
जो चलेगा मेरी
आंखिरी धड़कन तक।
मरा  हाथी सवा लाख का
इतना नहीं तो फिर भी
कुछ तो शायद दे सकूंगा
 मौत के बाद भी इन्हें।
जो प्रथा अब समाप्त हो चुकी है
आदमी -आदमी को खाने की
बता देगी ज़माने को
मेरे मरने के बाद
कि मैं जिन्दा हूं
क्योंकि मेरे दोस्त तब
मेरी लाश को आपस में
बराबर !!!बाँट कर
दुःखी हो खा रहे होंगे
क्योंकि यह मेरी जिंदगी की
आंखिरी - भेंट  होगी उन्हें।




No comments:

Post a Comment