Tuesday 27 May 2014

विदेशों में बी.जी.एम. (भगवद्गीता मैनेजमेंट ) की धूम 



चीनी चिन्तक ,विचारक सुनजू क़ी "आर्ट ऑफ  वॉर" पुस्तक कुछ समय पूर्व तक देश-विदेश में मैनेजमेंट छात्रों की पसंदीदा पुस्तक थीं। लेकिन इधर स्थितियां तेज़ी से बदली हैं ओर पूर्व में विश्व -जगदगुरु  रह  चुके भारत का  जादू फिर से सिर चढ़ कर बोलने  लगा  है। भारतीय दर्शन को अपने 18 अध्यायों में समेटे योगयोगेश्वर श्रीं क़ृष्ण के मधुर कंठों से निकली "भगवद्गीता "अब बिज़नेस स्कूल ओर कॉर्पोरेट जगत में विश्व भर में तेज़ी से लोकप्रिय होतीं जा रहीं है।
अमेरिका में केलॉग के मैनेजरों  को लीडरशिप सिखा रहे नये दौर के गुरु दीपक चोपड़ा, जनरल इलेक्ट्रिक में कारोबारी सलाहकार रामचरण की क्लास या लीमेन ब्रदर्स इन्क में स्वामी पार्थसारथी के स्टाफ को दिए गये प्रवचन इन सब में घूम - फिर के जो एक मूळ तत्व सबको आकर्षित कर रहा है वह है भारतीय ज्ञान चिंतन का अनुठा कालातीत दर्शन जो भगवद्गीता में सार रूप में समाहित है।
दरअसल,ये भारतीय गुरु विदेशी प्रबंधकों को भगवद्गीत्ता के कर्म को ही समझा रहे हैं और वहां इस नए रुझान को "कर्मा कैपिटलिज्म"यानि कर्म पूँजीवाद कहा जाने लगा है। श्री श्री रविशंकर,स्वामी पार्थसारथी आध्यात्मिक गुरु तो एक अर्से से हैं लेकिन इधर सी.के.प्रह्लाद ,रामचरण और विजय गोविन्द राजन भी कारोबारी गुरू के रूप में बहुत चर्चा में हैं।
सुन जू की किताब लीडर के बाह्य व्यक्तित्व को ही उभारती रही है और अभी तक विश्व में इस बाह्य व्यक्तित्व का विकास करना ही प्रमुख उद्देश्य माना जाता रहा था। इसके ही माध्यम से ही व्यवसाय में निरन्तर उनत्ति की कल्पना की जाती रही थी।  लेकिन भारतीय दर्शन आतंरिक व्यक्तित्व को निखारने पर सदा से जोर देता रहा है। उसका मानना है की "मन चंगा तो कठौती में गंगा"य़ानि कि आतंरिक व्यक्तित्व को सुधारने से बाह्य व्यक्तित्व,स्थितियां,वातावरण आदि सभी का कुशल प्रबंधन अत्यंत सरलता पूर्वक किया जा सकता है।
आज से हज़ारों वर्ष पूर्व अपने शिष्य अर्जुन को निमित्त बना कर सारे विश्व को दी गयी शिक्षा के रूप में संग्रहित गीता, अंतर्मन के अबूझ रहस्यों की परत दर परत खोलकर बाह्य व्यक्तित्व को न केवल विराट बनाती है अपितु सभी प्रकार कीपरिस्थितियों में अनोखी सामंजस्य कला को विकसित करने में भी अत्यंत सहायक सिद्ध होती है।
"कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन  … "(२ /४७)जैसे जगप्रसिद्द उद्-घोष द्वारा एक ओर जहाँ भगवद्गीता "तेरा कर्म मात्र में अधिकार है,फल में नहीं"कहकर कर्मवाद की पोषक है तो वहीँ उस कर्म के कारण रूप प्राप्त फल के प्रति संलिप्तता या मोह को नष्ट करने की शिक्षा देती है। वस्तुतः कर्म का दायरा जितना व्यापक और ऊर्जित  होता है उतना ही उसका मोह के दलदल से निकालना कठिन होता जाता है। कर्तापन के कारण "मैं" का विस्तार होता है जिससे व्यक्ति अपने ही विचारों,क्रियाओं को एकमात्र नियंत्रक,सत्य व् पूर्ण मानने लगता है। परिणामस्वरूप भौतिक सफलताओं के ऊँचे शिखरों पर चढ़ने के बावजूद भी वह आतंरिक रूप से अपने को बेचैन,असंतुष्ट,असफल महसूस करता है।




भगवद्गीता अकर्मण्य बनाने से भी रोकती है और किसी भी प्रकार की अति से बचने की शिक्षा भी देती है। "युक्ताहार विहारस्य युक्त चेष्टस्य कर्मसु  … "(६/१७ )पंक्तियों के माध्यम से वह यथायोग्य आहार-विहार,कर्मों में यथायोग्य प्रयत्नशील प्रवर्ति आदि के द्वारा समग्र जीवन में साम्यता,संयोजन और समता उपजने की महत्वपूर्ण शिक्षा देती है।
आज के दौर में सभी कुछ इतनी तीव्रता से बदल रहा है कि अपने अस्तित्व को बचाये रखना,उत्तरोत्तर प्रगति की और बढ़ते जाना सचमुच ही छूरे की नोक पर चलने जैसा है। गलाकाट प्रतिस्पर्धा,बाजारवाद पृथ्वी के सामने निरंतर नई चुनौतियां पेश कर रहा है। ऐसे में मैनेजमेंट स्कूल और कॉर्पोरेट जगत "कूल" रहने की सलाह देते हैं। लेकिन ये कूल तो भीतर से आता है। यानि की मन के शांत रहने से और यह तभी संभव हो सकता है जब हम बिना राग द्वेष के सतत कर्म करते रहें।"सर्वभूतहितेरताः" (५/२५)-सम्पूर्ण प्राणियों के हित में कर्मरत रहें। भगवद्गीता का दर्शन अमेरिका जैसे विकसित राष्ट्र की "कैपिटल"पर असर बेवजह ही नहीं डाल रहा है।        

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