Wednesday, 28 December 2016

शिवांश हैं हम जन सभी


शिवांश हैं हम जन सभी 
उस दिव्य परम पुरुष के। 
अतः हम क्यों सोचें कभी 
योग्य नहीं परम सत्य के। 
छिति,जल,पावक,गगन,समीर 
पंचभूत रचित हुई हमारी रचना।
जो सब उसकी ही तूलिका से 
है विलक्षण रची एक योजना।
आत्म तत्व तो उसी का है हममें 
चेतना का तेजोमय आलोक भरता। 
वही जब समाहित होता उसमें 
तो जगत है उसको मृत्यु कहता। 
पर वो तो है दिव्य मिलन
आत्मा और परमात्मा का।
अतिथि बन,कुछ देर घूम-टहल 
वापस अपने मूल निवास जाने का। 
अतः इस यात्रा को क्यों हम ढोयें भला 
परमोत्सव की तरह क्यों न चलते रहें।
जो भी है उसकी योजना हमारे प्रति 
आओ उस सोच को बस पूरा करतें रहें। 

Monday, 26 December 2016

गजल-52 "उस्ताद" वो नेमत ही है, माना कीजिये



बढ़ती उम्र से न कभी परेशां हुआ कीजिये।
अपने दिल को बस बच्चा ही रखा कीजिये।।

आवाज में दर्द होता हो तो हुआ करे आपके।
फुरसत निकाल कुछ गुनगुनाया कीजिये।।

ये दुनिया तो मतलबी रही है सदा से यूँ ही।
भाव उसको न ज़्यादा कभी दिया कीजिये।।

रास्ते कठिन हैं डगर के हर कदम दर कदम
हर सांस बस खुद पर यकीं किया कीजिये।।

बदलते हैं घूरे के दिन भी कभी न कभी तो।
खुदा पर भी थोड़ा ऐतबार किया कीजिये।।

जो हुआ,हो रहा या जो होगा आगे कभी।
"उस्ताद" वो नेमत है,सुन लिया कीजिये।।  

Friday, 28 October 2016

तुम्हारे इसी जज्बे से महफ़हूज हमारी हर होली-दीवाली (सैनिकों को समर्पित )




तन-मन धन से बेपरवाह देश  की करते हो तुम रखवाली। 
तुम्हारे इसी जज्बे से महफ़हूज हमारी हर होली-दीवाली।।
खुद के घर मने या न मने ईद या नानक जयंती। 
तुमने तो कसम खाई शत्रु मुक्त रहे देश की धरती।।
जाड़ा,गर्मी,बरसात या हो विपदाएं असंख्य,अनोखी। 
रहा तुम्हारा सदा ही एक लक्ष्य,राष्ट्र रहे सदा सुखी।।
माँ-बाप,भाई-बहन,पत्नी सुख की दी तुमने कुर्बानी।
हम सब चिर ऋणी तुम्हारे,ओ भारत वीर सेनानी।।

Sunday, 2 October 2016

राम नाम अनमोल मन्त्र है



राम नाम अनमोल मन्त्र है 
सरल-सहज आसान जाप है 
पर मुख से जो न निकले तो 
मानव जन्म धिक्कार बड़ा है। 

भाव-कुभाव सतत जपना है 
जीवन अपना सफल करना है 
वरना शत आयु रही भी तो 
यूँ ही आना-जाना लगा रहना है। 

निर्मल करता राम नाम है 
तन-मन का उद्धार काम है 
सोच-विचार बहुत क्या करना 
जग का मूल राम नाम है। 

राम-राम कह सबसे मिलना है 
राम-राम कह जग से जाना है 
राम तत्व की महिमा जानी तो 
राम स्वरुप ही हो जाना है। 

Friday, 30 September 2016

नवरात्रि की इस शुभ बेला पर झूम उठी ये सृष्टि सारी

नवरात्रि की इस शुभ बेला पर झूम उठी ये सृष्टि सारी 
माँ शारदा,लक्ष्मी,काली की गूँज उठी देखो किलकारी। 
सत,रज,तम और वात,पित्त,कफ के सन्तुलन की है तैयारी 
नव-दिन में तन-मन साधन की,साधक में होती है बेकरारी।
नवदुर्गा के नवरूप मनोहर,नवधा भक्ति की है बलिहारी 
अंबे-अंबे पार लगा इस भवसागर से,ये भाव बहे संचारी। 
तंत्र-मन्त्र,यज्ञ-दान और कहीं जगराते की होती है तैयारी 
माँ तो है करुणा की देवी,एक पुकार सबकी लाज संवारी।
श्री,समृद्धि,शक्ति,शांति की ,घर-घर बहे बयार हितकारी 
निश्छल नतमस्तक हों देवी के आगे तो मिटें कामना सारी।   

रायबहादुर बहुत होते थे बिरतानि शासनकाल में


रायबहादुर बहुत होते थे बिरतानि शासनकाल में 
लेकिन पाए जाते हैं अब भी हिंदुस्तान की धरती में। 
लूट-खसोट,छल-छद्म भरते जो अधिकारी के कानों में 
अपना उल्लू सीधा करने,तिकडम करते हर हाल में। 
जो सत्ता या इनका विरोधी हो,मार फेंकते कोने में 
लाज-शरम कहाँ भरती है,इन बेपैंदे के लोटों में। 
कोई मरे तो मरा करे,बला से इनके ठेंगे में 
ये तो बस अपने गुन गाते या जो हों सरकार में।
दाने-दाने को हो मुहताज,मांगें भीख जो गलियों में 
उनसे इन्हें नहीं वास्ता,ये तो मस्त जश्न मनाने में। 
लेकिन जनता त्रस्त बहुत जो छुपे भेदी नर खालों में 
मार-पीट और ठोक-बज कर लेगी बदला हर हाल में।  


Wednesday, 28 September 2016

माँ तेरे जगराते का आडम्बर करते कुछ लोग हैं


माँ तेरे जगराते का आडम्बर करते कुछ लोग हैं 
महंगे-महंगे झाड़-फानूसों से करते सजावट भव्य हैं।
हलुवा-पूरी,खीर-मलाई चट कर जाते सब भोग हैं  
सच्चे भक्तों को लेकिन तेरे,रूखा-सूखा देते शेष हैं। 
वी.वी.आई.पी,वी.आई.पी सुविधा करते खूब प्रबंध हैं
लेकिन निर्धन के भीतर आने पर करते बड़ा ज़लील हैं। 
माएं तो सबकी बस माँ होती हैं,करती कहाँ विभेद हैं 
लेकिन तेरी आड़ में भीतर-भीतर करते छल-प्रपंच हैं। 
महिला महिमा मंडन का बात-बात पर करते रहते शोर हैं 
माँ-बहनों संग व्यवहार मगर करते दुःशाशन का रोल हैं।
दुर्भाग्य बड़ा कि अब कुछ माँ-बहने भी करती बड़ा किलोल हैं 
इज़्ज़त से अपनी खुद ही खिलवाड़ करती रहती हर रोज़ हैं। 
जगदम्बे रौद्र रूप की तेरे अब हम सबको दरकार हैं 
भेद,अज्ञान मिटा दे इनका,नित करते यही गुहार हैं।
स्नेह,प्यार,दया और करुणा,मानव की असली पहचान हैं 
सरल,सहज जीवन जीने में सबके ही कल्याण निहित हैं।   

Monday, 26 September 2016

#शिवोहम (निर्वाणषट्कम #शंकराचार्य जी रचित का अनुवाद)-- शिव,शिव और शिव ही एक स्वीकार

न तो हूँ मैं मन,बुद्धि,चित्त,अहंकार 
न तो हूँ मैं स्वाद,घ्राण,दृश्य,गंधाधार 
न तो हूँ मैं व्योम,तेज़,वायु,अग्नि आकार 
मैं तो हूँ सदा-सदा ही आनंदागार
शिव,शिव और शिव ही एक स्वीकार।।१।।

न तो हूँ मैं प्राणाधार,न ही वायु पञ्च प्रकार 
न तो हूँ मैं  सप्त धातु,न ही पञ्च कोषागार 
न तो हूँ मैं पंचेंद्री ज्ञान,न ही पंचेंद्री कर्मविकार
मैं तो हूँ सदा-सदा ही आनंदागार
शिव,शिव और शिव ही एक स्वीकार।।२।।

न तो हूँ मैं राग-द्वेष,न ही लोभ,मोहाकार 
न तो हूँ मैं ईर्ष्या और न ही अहंकार 
न तो हूँ मैं धर्म,अर्थ न ही काम,मोक्षाकार 
मैं तो हूँ सदा-सदा ही आनंदागार
शिव,शिव और शिव ही एक स्वीकार।।३।।

न तो हूँ मैं पुण्य,पाप न ही सुख,दुःखागार
न तो हूँ मैं मन्त्र,तीर्थ न ही वेद,यज्ञाधार
भोजन भी नहीं हूँ मैं और न भोक्ता या उपभोग्यआगार   
मैं तो हूँ सदा-सदा ही आनंदागार
शिव,शिव और शिव ही एक स्वीकार।।४।।

न ही मुझमें डर-भय ,न ही जाति-भेद प्रकार 
न ही माता-पिता और न ही जन्म लेता आकार 
न ही कोई बंधु-बांधव न ही गुरु-शिष्य प्रकार 
मैं तो हूँ सदा-सदा ही आनंदागार
शिव,शिव और शिव ही एक स्वीकार।।५।।

मैं तो हूँ सदा-सदा ही निर्विकल्प और निराकार 
सभी इन्द्रियों की ममता से परे है मेरा आकार 
न ही हूँ मैं बंधन में और न ही मुक्ति विचार 
मैं तो हूँ सदा-सदा ही आनंदागार
शिव,शिव और शिव ही एक स्वीकार।।६।।


शिवोहम शिवोहम 
शिवोहम 




  
   


Saturday, 24 September 2016

संत की मुस्कान



संत की मुस्कान की बात ही कुछ और है 
खिले गदराए गुलाब की बात ही कुछ और है। 
सात्विक,सरल,सहज मुस्कान की बात ही कुछ और है 
भोली,मृदुल,निश्छल मुस्कान की बात ही कुछ और है। 
वो रोता हो,क्रोधित हो या पीड़ा में दिखता हो 
पर देख सको तो देखो उसमें भी मुस्कान छिपी है।
हलके,मंद-मंद या ठहाके से अट्टहास तक 
उसकी मुस्कान एक,हम सब पर भारी है। 
जिस पर उसकी बांकी मुस्कान कटार पड़ी है 
वो तो खो अपनी सुध-बुध बावली ही फिरती है।   

Thursday, 22 September 2016

महाकाल रूप प्रचंड अब तो उन सबको दिखलाना है ( #पाकिस्तान को सबक )


पाक तो अपने जन्मकाल से ही नापाक राष्ट्र रहा है 
जाने क्यों फिर भी भारत देता उसको भाव रहा है।
खेल,साहित्य,संगीत का बेवजह इससे संवाद रहा है 
दरअसल ये तो लुच्चा बेगैरतों का सरताज़ रहा है। 
आतंक की फसल उगाकर बेशर्मी का नंगा नाच किया है 
नेस्तनाबूद कर दो इसको कहता भारत का लाल रहा है।
झूठ,मक्कारी,फरेब, का भी कहीं सीधा इलाज़ भला है
राजदूत बुला,लतिया भेजो इसका यही जवाब बचा है। 
दूध पिला-पिला जो हमने सापों को अब तक पाला है 
महाकाल रूप प्रचंड अब तो उन सबको दिखलाना है। 
हुक्का-पानी बंद करो सब इनका,अब न हाथ मिलाना है 
अक्ल न जब तक आये ठिकाने,तब तक सबक सीखना है।   

पितरों को अपने समस्त अत्यंत विनीत भाव से

पितरों को अपने समस्त अत्यंत विनीत भाव से 
श्रद्धासुमनांजलि है सादर समर्पित इस काव्य से। 
पितृ-पक्ष प्रारम्भ होता कन्यागत सूर्य के आश्विन मास से 
पूर्णिमा से अमावस्या श्राद्ध करते हैं सभी अपने हिसाब से।
षोडस दिनों के पुर्वजों संग इस भावपूर्ण संवाद से
पितरों को हैं नमन करते कृतज्ञता और प्यार से। 
अपने शुभ कर्मों की बदौलत प्राप्त पुण्य राशि से 
पितर जीवन हैं संवारते हम सभी का स्वर्ग से।
भोजन खिला या दे सीता पितरों के निमित्त से 
कुछ उऋण होते हैं हम पितृ-ऋण या कर्तव्य से। 
भाव जगत की बात यूँ तो समझ न आयेगी मस्तिष्क से 
होता है पर इस बहाने स्मरण,वंदन,संवाद अपने पूर्वजों से। 
जो भी हैं हम आज वो मात्र अपने पितृ आशीष से 
बढ़ेगा ओज,बल नित्य हमारा पितरों को नमन से। 
पितर संतुष्ट होते हैं हमारे,तिल,कुशा,जलांजलि से 
वर्ष में बस एक बार,सो क्यों चूकें इस सौभाग्य से। 


  

Tuesday, 20 September 2016

राम-रट,राम-रट;झट-पट,झट-पट।


राम-रट,राम-रट;झट-पट,झट-पट। 
जाने कब बंद हों,मुख के दो पट। 
राम-देख,राम-देख;सब में चट-पट।  
जाने कब बंद हों;नैनों के दो पट। 
राम-जान,राम-जान;जगताधार फट-फट।   
राम-मान,राम-मान;विश्वास परम चट-पट।  
जाने कब मलिन हो;मन तेरा ले करवट।  
राम-सत्य,परम-सत्य;अर्पित कर अहं झट-पट।  
जाने कब तुझको फँसाये;माया की ये लट-पट। 
###################################

प्यार नहीं एकमात्र बने अब तो "शठे-शाठ्यम" मन्त्र हमारा।।



अमर शहीदों को श्रद्धांजलि देने उमड़ा सारा देश हमारा।
लेकिन सोचो इतने से क्या इतिश्री होगा कर्तव्य हमारा।।
सैनिक ने तो जान गवां कर अपनी देश बचाया सारा। 
ऋण उतार सकेगा उनका पर क्या मात्र विलाप हमारा।।
मारो,काटो,फूकों सबको अब तो हो बस कर्म हमारा।
शत्रु सारे सब थर्राएं गूंजे ऐसा अब जयगीत हमारा।।
फहराएं हम शत्रु भूमि पर बढ़कर विश्व विजयी तिरंगा प्यारा। 
आने वाली नसलें उनकी सोचें जिससे कभी न सौबार दोबारा।।
लेकिन इससे भी पहले भीतर बैठा जितना है गद्दार हमारा। 
ढूंढ,छांट,पकड़-पकड़ कर दो इन सबको जवाब करारा।।
बहुत हो चुका अब नहीं सहेंगे सब्र का बांध टूट चुका  हमारा। 
प्यार नहीं एकमात्र बने अब तो "शठे-शाठ्यम" मन्त्र हमारा।।

Sunday, 18 September 2016

यद्यपि हूँ मैं पातकी (शिव से प्रार्थना)

यद्यपि हूँ मैं पातकी,तो भी छल-प्रपंच से। 
हाथ जोड़ हूँ खड़ा,मुक्त होने के लिए।। 
पूरी कायनात से विनम्र हो,सद्भाव से। 
करता हूँ मैं प्रार्थना, स्नेह-प्यार के लिए।।
दुआ करें आप सभी मेरी खातिर रब से। 
लायक बना ले वो मुझे,अपना होने के लिए।।
वर्ना यूँ कहाँ बच पाउँगा इन हालात से। 
सो मदद करना सभी,मेरे जीवन के लिए।।
खुद पर यंकीन नहीं मुझे,एक बार से। 
अनुनय तभी तो है आपसे,अपने लिए।।

##############################

Monday, 12 September 2016

#शिवमानस #पूजा ( #हिंदी मेंअनुवादित)


हम आपको,हे देव दयानिधे -हे तारकेश,पशुपते 
रत्न अलंकृत आसन बैठा,गंगाजल से नहलाते 
आभूषण रत्नजटित और दिव्य वस्त्र हैं पहनाते 
कस्तूरीगंध समन्वित चन्दन से,अंग-अंग महकाते
 जूही,चंपा,बिल्व और नलिनांजली फिर हैं तुझे चढ़ाते
स्वीकारो हे देव,धूप दीप की मानस पूजा,जो हम तेरी करते।। १
नवरत्न खचित स्वर्णपात्र में दूध,दही और खीर हैं अर्पित करते 
पांच प्रकार के व्यंजन अर्पित,शर्बत,केला भी सम्मुख रखते 
शाक अनेक विविध प्रकार और कपूर सुवासित जल हैं देते
ताम्बूल आदि मानस रचित सब,सेवा में हैं अर्पित करते ।।२
छात्र,चवँर दो,पंख और निर्मल दर्पण तेरी खातिर रखते 
वीणा,भेरी,मृदंग,दुंदभि वाद्य संग नृत्य गान फिर करते 
साष्टांग प्रणाम और स्तुति अनेक प्रकार बारंबार हैं करते 
स्वीकारो मानस संकल्प हे नाथ,जो तुझको हैं अर्पित करते।।३ 
आत्मरूप सबके तन-मन मंदिर,भोले आप सदा ही बसते  
बुद्धि पार्वती और गण प्राण रूप में,अन्तरमन में हैं रहते 
विषय भोग नानाविध के द्वारा,तेरी पूजा हम सब हैं करते
प्रतिदिन चलते-फिरते जग में,हम परिक्रमा ही करते 
समाधि अवस्था नींद जीव की,शब्द स्त्रोत्र बन वाणी झरते 
पूजा ही होती तेरी भगवन,जो-जो कर्म जगत हम करते।।४ 
                                    कर्ण ,नेत्र,हाथ,पैर,वाणी,शरीर;मन,वाचा और कर्म संग जो करते 
विहित,अविहित अपराध हमारे,वो तो नित ही हम करते रहते 
उन सभी कृत्य को छमा करें आप,हे आशुतोष नित यही हम रटते 
हे करुणासागर महादेव हे शिव शम्भो,जयजयकार हम मिल करते।।५ 





Sunday, 11 September 2016

#श्रीरामचरितमानस में #शिव तत्व

जटा मुकुट सुरसरित सिर लोचन "नलिन" बिसाल।

 नीलकंठ लावन्यनिधि सोह बालबिधु भाल।।(१/१०६)






तुलसीदासजी की लेखनी द्वारा रचित श्रीरामचरित भक्ति गाथा का महाकाव्य श्रीरामचरितमानस,शिव के बिना जो "सत्यम शिवम् सुंदरम" हैं,अधूरा है जैसे शरीर बिन प्राण के। स्वयं तुलसी स्वीकारते हैं कि "संभु प्रसाद सुमति हिय हुलसी,रामचरित मानस कबि तुलसी" (१/३५/१) और यह रामचरितमानस नाम भी उनका दिया नहीं है यह शिव का ही  का दिया है क्योंकि "रची महेश निज मानस रखा।पाई सुसमउ शिव सन भाखा। "(१/३४/१० )"तातें रामचरितमानस बर। धरेउ नाम हियँ हेरि हरषि हर। (१/३४/११)अतः रामचरित के सूत्रधार तो शिव ही हैं जिनके निर्देशन में यह काव्य रचा गया है। इसलिए प्रारम्भिक पंक्तियों  में गणेश पूजनोपरांत तुलसी "श्रद्धाविश्वासरूपिणौ" के रूप में शिव और उनकी क्रिया शक्ति शिवा का स्मरण करते हैं। सही भी है की बगैर श्रद्धा और विश्वास के ईश्वर की परछाई भी कहाँ दिख सकती है।अतः उच्च चेतना या प्रज्ञा में जैसे-जैसे श्रद्धा विश्वास की भक्ति धारा सतत प्रवाहमान हो दृढ़ता प्राप्त करती है तब जाकर कहीं सुबुद्धि,बल,विवेक संपन्न श्री गणेश का अवतरण होता है जो राम (परमेश्वर) नाम  की महिमा को वास्तविक रूप में समझ पाता है। "महिमा जासु जान गनराऊ। प्रथम पूजिअत नाम प्रभाऊ।(१/१८/१४)

अतः यह निर्विवाद है कि बिना शिव को उनकी समग्रता के साथ जाने अपना राम से मिलना संभव नहीं या कि परम कल्याण संभव नहीं। यही कारण है कि अपने परम कल्याण की इच्छा रखने वाले भरद्वाज मुनि जब याज्ञवल्क्य ऋषि को अनुरोध पूर्वक रोककर राम और उनकी कथा का मर्म समझना चाहते हैं तो याज्ञवल्क्य जी उन्हें पहले शिव कथा सुनाते हैं अर्थात विश्वास की कथा। जो एक प्रकार से उनकी परीक्षा ही है जो एक गुरु अपने अधिकारी,सच्चे शिष्य की तलाश हेतु करता है।  दरअसल शिव/विश्वास गाथा इतनी आसानी से हजम होने वाली नहीं है। सती जो दक्ष(प्रवीणता)की पुत्री होने से बुद्धि/चतुराई की प्रतीक हैं वे शिव से विवाह उपरांत भी मन मिला नहीं पायीं और तार्किक दृष्टि को ही प्रमुखता देने के कारण अगस्त्य ऋषि के आश्रम में शिव संग राम कथा सुनने गयीं भी तो अपने पति के वचन पर ही संशय या अविश्वास कर बैठीं। अंततः उन्हें बाद में अपनी महान त्रुटि का आभास होने पर शरीर छोड़ कर श्रद्धा के रूप में पार्वती नाम से अवतरित होना पड़ा और इस स्वरूप  में उन्होंने विश्वास (शिव) के साथ सुंदर तालमेल बैठा कर रामकथा का मर्म हृदयंगम करने में सफलता पायी। हालाँकि नव जन्मोपरांत पार्वतीजी की तो मनःस्थिति परिवर्तित हो चुकी थी किन्तु उनकी माँ मैना एवं अन्य परिवार या समाज की स्थिति जस की तस थी जो जीव की स्वाभाविक स्थिति है। अतः शिव के दुल्हे के रूप में "तन बिभूति पट केहरि छाला "जैसी विचित्र साज-सज्जा और तिस पर "सोने में सुहागा " से उनके गणों की "कोउ मुखहीन बिपुल मुख काहू" सी उपस्थिति ने पार्वती  की माँ को भयाक्रांत कर दिया जिससे वे इस विवाह के लिए तैयार नहीं हो रहीं थी। अंततः संत नारद के उपदेशोपरांत उनको शिव पार्वती के वास्तविक स्वरुप का ज्ञान हुआ और विवाह संभव हो सका।तो इसी कारण याज्ञवल्क्य,भारद्वाज को भली-भांति परखना चाहते हैं क्योंकि सामान्य जीव ईश्वर पर निष्ठा की बात,उनके साक्षात्कार की बात तो कहता  है पर उसके पास तक पहुँचाने वाले दुर्गम पथ पर चलने का हौसला उसके पास अंततः दिखाई नहीं देता। ये जो शिव के भयोत्पादक गण हैं वो विश्वास तक पहुँचाने में हमारी उधेड़बुन के ही प्रतीक हैं। इसलिए स्वयं रामजी के मुख से भी मानस में कहलवाया गया है "औरउ एक गुपुत मत सबहि कहउँ कर जोरि। संकर भजन बिना नर भगति न पावइ मोरि। "(७/४५)

मानस में कहा गया है "श्रद्धा बिना धर्म नहीं होई "(७/८९/४) तो धर्मी होने को श्रद्धा चाहिए ही चाहिए और धर्ममय जीवन का यदि पाणिग्रहण विश्वास संग हो तो ही वास्तविक भक्ति हो पायेगी जिसके बगैर राम(परमेश्वर) की कृपा/साक्षात्कार संभव नहीं। "बिनु बिस्वास भगति नहिं,तेहि बिनु द्रवहिं न राम। "(७/१०/क ) लेकिन यह विवाह तो बड़ा कठिन है तभी तो तुलसी कहते हैं "चरित सिंधु गिरिजा रमन बेद न पावहिं पारु। बरनै तुलसीदासु किमी अति मतिमंद गवारु। "(१/१०३) यह शिव,कल्याणरुपी विश्वास जब जीवन में आ जाता है तो वह "रघुपति व्रतधारी " की पराकाष्ठा में पहुँच "बिनुअघ तजी सती असि नारि" का विकट संकल्प ले सकता है।क्योंकि विश्वास में ही यह ताकत होती है कि वह मन,कर्म, वचन से "उमा कहउँ मैं अनुभव अपना सत हरी भजन जगत सब सपना। " को अपने आचरण में प्रगट कर सके। इसीलिए सती के झूठ बोलने पर भी शिव "हरि इच्छा भावी बलवाना ह्रदय बिचारत संभु सुजाना "(१/५५/६) स्वीकारने का साहस रखते हैं जबकि "भाविउ मेटि सकहिं त्रिपुरारी" के अनुसार विश्वास के बल पर असम्भव भी संभव होते हैं। "जेहि पर जेहि को सत्य सनेहु सो तेहि मिलहिं न कछु सन्देहू " लेकिन कल्याणकारी शिव का विश्वास तो प्रभु के प्रत्येक कार्य में समर्पण की भावना रखता है।

शिव में तीन अक्षर हैं। श,इ,व। श का अर्थ है शयन या माया मोह से परे समाधिअवस्था में परमानन्द। इ का अर्थ है अभीष्ट सिद्धि तथा व का अर्थ है बीज जिसमे अमृत छुपा है। शिव तत्व यद्यपि स्वयं में एक परम तत्व है किन्तु इसके बावजूद वह विनम्र है और राम को अपने गुरु के रूप में देखता है तो वहीं राम भी शिवत्व को अपने गुरु या इष्ट के रूप में स्वीकारते हैं। याने परम तत्वों का यह स्वाभाविक आचरण ही है। इससे ही परम तत्वों  को  एक दूसरे का प्रत्यक्ष स्वरुप कहा जा सकता है। बाह्य रूप में चाहे हम ब्रह्मा,विष्णु,महेश या शक्ति आदि के रूप में उनका भेद करते हों पर आतंरिक रूप में वो सभी हैं एक ही,"एकोहं द्वितीयोनास्ति" शिव का यही विनम्र भाव है जो वे रामजन्म से लेकर राम के राज्याभिषेक तक के समस्त प्रमुख कार्यों में कभी कागभुशुण्डि जी,कभी सती संग तो कभी अकेले ही रामचरितमानस में विराजमान दिखाई देते हैं ।

मानस कथानुसार लंकेश रावण शिव का पुजारी है और उन्हें अपना शीश चढ़ा विशिष्ट वरदान प्राप्त करने से अहंकारी हो जाता है।  पत्नी मंदोदरी को मगर राम के ईश्वरत्व का आभास हो जाने से वह उसे राम से युद्ध न करने की सलाह देती है यह कहकर कि "अहंकार सिव बुद्धि आज मन ससि चित्त महान।मनुज बास सचराचर रूप राम भगवान्। "(६/१५क ) यहाँ परमेश्वर का अहंकार शिव का स्वरूप है। याने कि शिव संपूर्ण सृष्टि के अहंकार हैं। अहम् की भावना ही अहंकार कहलाती है। अहम् सामान्यतः बुरा नहीं है क्योंकि  इसके चलते ही तो हम कर्म करने में समर्थ हैं और मैं (अहम्) कौन हूँ?मेरे जन्म का उद्देश्य क्या है ? ऐसी अनेक जिज्ञासाएं अहम् की वजह से ही उपज पाती हैं। अतः अहम् को वास्तविक रूप में समझ पाना ही शिवत्व है। रामकृष्ण परमहंस जी कहते थे की मैं समाधि अवस्था से वापस जो आ पाता हूँ तो अपने भीतर एक चाह,कचौड़ी खाने की चाह को अवचेतन में बनाये रखने की वजह से ही आ पता हूँ वरना तो समाधि अवस्था में परमानन्द है।  लेकिन ईश्वर द्वारा निर्देशित लौकिक कार्यों की पूर्ति हेतु व्यापक अवस्था से सीमित अहम् (मैं) तक मुझे उतारना पड़ता है। यह शिव तत्व को को समझने का प्रमुख सूत्र है।  शिवोहम,शिवोहम की जो भावना है वो तो अपने को "सीय राम मय सब जग जानि " के व्यापक दर्शन से ही वास्तविक रूप में प्रगट की जा सकती है। रावण अपना भौतिक सिर तो चढ़ा देता है किन्तु यह अर्पण का भाव उसमें १० सिर का बोझ और बढा देता है और व्यापक दर्शन से विलग होने से वह अपने को मात्र अपने "मैं " तक सीमित रखअधिक संकुचित,अधिक स्वार्थी और अधिक अत्याचारी हो जाता है।यही अहंकार एक बार नारद पर भी थोड़े समय चढ़ता है जब काम पर वो विजय प्राप्त कर लेते हैं और बड़े अहंकार से शिव को व्यंग करते हुए सुनते हैं क्योंकि शिव ने तो काम को क्रोध करते हुए भस्म कर दिया था और नारद का उद्देश्य था शिव को यह दिखाना कि आप तो क्रोध में आ जाते हो पर मैंने तो काम,क्रोध जीत लिए हैं.शिव इस पर यह प्रसंग विष्णु को न सुनाने की नेक सलाह देते हैं क्योंकि परमसत्ता को आप अपनी उपलब्धि क्या बांचोगे? जबकि समस्त सृष्टि का पत्ता-पत्ता भी उसके इशारे पर नाचता है। "सबहिं नचावत राम गौसाईं "लेकिन नारद शिव सलाह की अनदेखी करते हैं और "कामविजय" की अकड़ का अंत में विष्णु कृपा द्वारा मोहभंग होता है। 
     
श्रीरामचरितमानस में ऐसे ही अनेक प्रसंग हैं जिनसे जीवन की जटिल गुत्थियां सुलझती हैं। ऐसा ही एक प्रसंग है गरुण जी का। गरुण जी हैं तो विष्णु के प्रमुख पार्षद पर इतने निकट होते हुए भी विष्णु के रामावतार पर उन्हें संशय है। ऐसे में उन्हें कौन ज्ञान दे? सो संत (नारद) कृपा से वो शिव तक पहुंचते हैं। लेकिन शिव कुछ प्रमुख तथ्यों को सम्मुख रखते हुए उनसे कहते हैं कि तुम मार्ग में मुझे मिले हो तो ऐसे में संशय नष्ट करना कठिन है क्योंकि यह चलते-फिरते की बातचीत नहीं है। वैसे ही जैसे गंभीर रोगी सड़क पर चिकित्सक से सम्पूर्ण इलाज़ चाहे तो वह संभव नहीं है। अतः शिव "बहुकाल करिअ सतसंगा "की बात सुझाते हैं जिससे "जाइहिं  सुनत सकल संदेहा। रामचरन होइहिं अति नेहा।।" (१/६०/८) महादेव जो जगदगुरु हैं वह "रघुपति कृपां मरमु मैं पावा" से जानते हैं कि किसका-किससे ,कब और कहाँ कल्याण संभव या निर्धारित है। अतः "समुझइ खग खगही  कै भाखा।" के आधार पर शिव उन्हें कागश्री के पास भेजते हैं।  शिवत्व की यही विशेषता है की वह भीतर तह तक जाकर विश्लेषण उपरांत सटीक इलाज़ करता है। 

शिव श्रुतिमारग की मर्यादा रखने हेतु पुर्णरूपेण कटिबद्ध हैं यही कारण  है कागभुशुण्डि जब शुद्र रूप में अपने गुरु का अपमान करते हैं तो शिव उन्हें अत्यंत कठोर श्राप देते हैं। लेकिन वहीं करुणासागर आशुतोष होने से अपने भक्त (शुद्र व्यक्ति के गुरु) के अनुनय-विनय पर शुद्र को उसके परम कल्याण का मार्ग सुझाते हुए "छमासील जे पर उपकारी,ते द्विज मोहि प्रिय जथा खरारी"(१/१०८/५ )अर्थात "शिवेन सह मोदते"का सूत्र वाक्य भी दे जाते हैं।शिव के विषय में मानस में ऐसी ही एक अन्य कथा कामदेव की आती है। शिव-विवाह पश्चात शिव पुत्र तारकासुर का वध करेगा अतः देवता कामदेव को भेज कर विरागी शिव को "काम" मोहित करना चाहते हैं। कामदेव अनेक प्रयास करते हैं किन्तु अंत में स्वयं ही शिव कोप से भस्म हो जाते हैं।इससे हम कह सकते हैं कि कोमल,इंद्रधनुषी कामनाएं भी साधक के लिए खासतौर से साधना के दौरान त्याज्य हैं। अतः शिव ऐसे कारण को ही समूल नष्ट कर देते हैं। उनमें ऐसा साहस है,वीतरागिता है। आगे इसी प्रसंग में शिव को पाने के लिए साधनारत पार्वती की परीक्षा लेते सप्तऋषि भी उन्हें चिढाते हुए कहते हैं कि "काम" को तो शिव भस्म कर चुके हैं
अतः उनसे विवाह का प्रयोजन व्यर्थ है। ऐसे में शिवत्व में श्रद्धा अर्पित कर चुकी पार्वती भी सप्तऋषियों को खरी-खरी सुनाते हुए कहती हैं -"तुम्हरे जान काम अब जारा,अब लगि संभु रहे सबिकारा। हमरे जान सदा सिव जोगी,आज अनवद्य अकाम अभोगी" (१/८९/२-३) शिव तो राग-विराग से परे हैं,निष्काम हैं और इसी का सटीक उदाहरण देते हुए पार्वती कहती हैं कि जैसे अग्नि का सहज स्वाभाव है जला देना और उसमें वह विभेद नहीं करती वैसे ही महादेव हैं इसी स्वाभाव के चलते जब पार्वती अपने नूतन जन्म में भी पुनः त्रुटिवश शिव से राम के सन्दर्भ में हल्का संदेह व्यक्त करती हैं तो शिव दो टूक कह पाते हैं -"एक बात नहि मोहि सुहानी,जदपि मोह बस कहेहु भवानी। तुम्ह जो कहा राम कोउ आना,जेहि श्रुति धरहिं मुनि ध्याना।।(१/११३/७-८)  
    
अचल विश्वास की यही पराकाष्ठा है और ऐसे ही शिवत्व का जीव के भीतर उपजना परमब्रह्म परमेश्वर से साक्षात्कार का सौभाग्य दे पाता है। ऐसे अटल विश्वास पर स्वाभाविक ही परमब्रह्म परमेश्वर भी रीझ जाता है और अपना परम स्वरुप सहज ही प्रगट कर देता है। बिना सोलह आने विश्वास के रामानुराग नहीं उपजता और "मिलहिं न रघुपति बिन अनुरागा "यह तो परम सत्य है ही।

तुलसीदास जी कृत श्रीरामचरितमानस की परीक्षा हेतु काशी के शिव मंदिर में कुछ छुद्र सोच से पीड़ित पंडितों ने जब मानस को अन्य कई विशिष्ट ग्रंथों के सबसे नीचे रख दिया तो भी प्रातः काल मंदिर के कपाट खोलने पर श्री रामचरितमानस को सबसे ऊपर पाया गया। दरअसल विश्वास का शिव ही भगवान को सर्वोच्च आसन दिलाता है और प्रतिक्रिया स्वरुप भगवान भी जीव में शिवत्व की स्थापना हेतु सदैव तत्पर रहते हैं। शिवत्व की स्थापना से जीव भी "कर्पूरगौरं करुणावतारं" की तरह पारदर्शी,निर्मल,निश्छल,विश्वास युक्त हो जाता है।एक प्रसंग में नारद जी जो विवाह में मदद न किये जाने से मोहवश विष्णु को श्राप देते हैं और बाद में मोहभंग हो जाने पर अत्यंत लज्जित हो जाते हैं।उन्हें विष्णु भगवान् "जपहु जाइ संकर सत नामा।होइहिं हृदय तुरत बिश्रामा" (१/१३/५) द्वारा पश्चाताप की अग्नि से दग्ध मनःस्थिति के उपचार का मार्ग सुझाते हैं। साथ ही दृढ़तापूर्वक कहते हैं "कोउ नहिं सिव सामान प्रिय मोरें। असि परतीति तजहु जनि भोरें। (१/१३/६) क्योंकि निश्छलता,सहजता,सरलता तो शिवभाव में रहने से ही आती है।कबीरदास जी ऐसी ही स्थिति का वर्णन करते हुए कहते हैं -
             कबीरा मन निर्मल भया,जैसे गंगा नीर।
             हरि लागा पीछे फिरत,कहत कबीर कबीर। 
तो ऐसे शिवत्व के प्रगटीकरण से परमब्रह्म स्वयं जीव के अधीन हो जाता है। श्रीरामचरितमानस ग्रन्थ में शिव के बहाने ऐसी ही निष्ठा को साधक के मन-मन्दिर में उभारने का प्रयास किया गया है।और पूरी गंभीरता से शिव के इस मर्म को अलग-अलग भाव रूपों में अनेक प्रसंगों द्वारा पुष्ट किया गया है।अतः शिवत्व को उपजा,परमब्रह्म राम से साक्षात्कार की गाथा का ही यह सर्वसम्मानित,पूजित ग्रन्थ यशोगान करता है।
            प्रभु समरथ सर्बग्य सिव सकल कला गुन धाम।
            जोग ग्यान बैराग्य निधि प्रनत कलपतरु नाम।।(१/१०७)
  
 (हे प्रभो!आप समर्थ,सर्वज्ञ,और कल्याणस्वरूप हैं। सब कलाओं और गुणों के निधान हैं और योग,ज्ञान तथा वैराग्य के भण्डार हैं। आपका नाम शरणागतों के लिए कल्पवृक्ष है। 

                                     शिवार्पणमस्तु।।

         

Wednesday, 7 September 2016

सरस्वती स्तोत्रम हिंदी में अनुवादित





श्वेत "नलिन" विराजित हैं देवी सरस्वती। 
श्वेत पुष्पगुच्छ अलंकृत  हैं देवी सरस्वती। 
श्वेत वस्त्र धारण करती हैं देवी सरस्वती। 
श्वेत गन्धलेप सुशोभित हैं देवी सरस्वती। 
श्वेत माल कर में रखती हैं देवी सरस्वती। 
श्वेत चन्दन अभिसिंचित हैं देवी सरस्वती।
श्वेत वीणा कर में रखती हैं देवी सरस्वती। 
श्वेत आभषूण सुशोभित हैं देवी सरस्वती। 
सिद्ध,गन्धर्व,देव,दनुज करते हैं सदा  स्तुति। 
मुनि,महर्षि नित नमन संग करते है विनती।
भोर,मध्याह्न,सायंकाल पढ़े जो यह स्तुति। 
समस्त विद्या प्रदान करती उसे माँ सरस्वती।  

Tuesday, 6 September 2016

"नलिन" नयन श्री राम हैं आपके



"नलिन" नयन श्री राम हैं आपके 
बंकिम छवि,लटकत कुंडल रतनारे। 
श्री प्रभा रूप मधुर प्रति अंग समाए 
चिक्कन कपोल,मधु भीगे ओंठ रसीले। 
भक्त हित धनुष-बाण कर में संभाले 
ढूंढ-ढूंढ मारते अवगुन सदा सारे। 
जग प्रसिद्द पतित उद्धारन विरद आपके 
खुशहाल हों जीव सभी ऐसा विचारिये। 
भक्ति पाएं आपकी बस यही हमें चाहिए 
चरण-शरण नाथ दे हमें आप उबारिए। 

Monday, 5 September 2016

जय गजानन,जय गजानन प्रथम पूज्य आप हो

जय गजानन,जय गजानन प्रथम पूज्य आप हो 
बुद्धि,बल,वाकचातुर्य में सबके सिरमौर आप हो। 
आँख छोटी तुम्हारी,देखते कहाँ किसी के दोष हो 
कान सूर्पकार तुम्हारे,छान ग्रहण करते सत्व हो। 
उदर विशाल पचाने में समर्थ गरिष्ठ हर बात हो 
पाश,अंकुश से सभी शत्रु दल जीतते आप हो।
मूषक सवारी प्रिय तुम्हारी,विघ्नहर्ता सर्वेश हो 
स्थूल तन के बावजूद,तुम नाचते क्या खूब हो। 
गणेश उत्सव नाम पर बांधते सभी जन एकसूत्र हो 
धन-धान्य,सूत मंगल प्रदाता गणाध्यक्ष विशेष हो। 
मोदक,तिल,दूर्वा,सुपारी होते प्रसन्न अतिशीघ्र हो 
सरल,सहज स्वभाव युक्त तुम सदगुरु महान हो। 
दया,प्रेम,सत्कर्म का जगत नित विस्तार हो 
शीघ्र अब तुम्हारा "नलिन" हृदय भी वास हो।   

Friday, 2 September 2016

विदेह माँ जानकी,मुझ पर कृपा आप कीजिये


विदेह माँ जानकी,मुझ पर कृपा आप कीजिये
हो जाऊं देहातीत,ऐसी विमल मति दीजिये।
काम,क्रोध,मद,मोह,राग मुझे सदा हैं छेड़ते
अपने आगोश में ले बलात अक्सर हैं निचोड़ते।
मैं त्रस्त,खिन्न मन,कुछ भी नहीं है सूझता
भला-बुरा कुछ न विचार हर घडी को हूँ कोसता।
जाने कैसे फिर भी मगर तेरी शरण हूँ आ सका
सौभाग्य बना दे इसे मेरा,बस यही तुझसे याचना।

Thursday, 1 September 2016

चाटुकारिता परमपददायी (व्यंग लेख)


मानव बुद्धिजीवी प्राणी है। जन्म से ही उसकी आंखों में एक नहीं अनेक सपने बसते हैं। करोड़पति, अरबपति होने के। आलीशान कोठियों, फार्महाउसों के। लग्जरी कारों, सुख-संपत्ति, विलासिताओं की प्रचुर सामग्रियों को भोगने के। तो इनको हासिल करना ही उसका उद्देश्य रहता है। भारत जैसे देश में पढ़ाई से, उद्यम से, खेलकूद (क्रिकेट छोड़कर) से इस तरह के सपनों के साकार होने की संभावना रेगिस्तान में पानी मिलने से भी अधिक कठिन है। वैसे भी इन क्षेत्रों के इच्छुक होनहारों या प्रैक्टिकली मतिमंदों की अगर बात करें तो अपने देश में इनकी स्पीशीज (जाति/किस्म) खुदा के फ़ज़्ल से बहुत कम है। अधिकांश लोग दूसरे के कंधों पर बंदूक रख कर दागने में महारत किए रहते हैं। वैसे जिस परमपददायी साधना-सिद्धी की बात मैं कर रहा हूं वह उतनी कठोर, असभ्य सी दिखने वाली साधना भी नहीं है। चाटुकारिता की साधना और सिद्धि तो बड़ी कोमल, मृदु, रसभरी है। इसमें जैसे शिव का सिर से लेकर पैर तक संपूर्ण रूप में जलाभिषेक, दुग्धाभिषेक शर्करा, मधु आदि से विविध अन्य सामग्रियों/विधियों द्वारा पूजन किया जाता है। पूरे भाव से, तन-मन-धन से उसी प्रकार यह भी की जाती है। उस अभीष्ट व्यक्ति से वरदान पाकर अपने जीवन को कृतार्थ करने हेतु। वैसे कभी-कभी क्या प्रायः यह एक व्यक्ति तक सीमित नहीं रहती। जैसे शिव के साथ उसके परिवार और गणों की पूजा अपने अधिक व्यापक हित में की जाती है उसी प्रकार यहां भी उस अभीष्ट व्यक्ति के परिवार, सेक्रेटरी खास चपरासी और ड्राइवर की पंचोपचार या षोडशोपचार जैसा उपयुक्त हो समय, काल, परिस्थिति अनुसार वैसी ही पूजा की जाती है। वैसे यह उतनी भी सरल और सहज नहीं है जितनी पढ़ने में लग रही होगी। दरअसल किताबें पढ़ने से ज्ञानचक्षु खुलते तो सभी बुद्ध हो जाते। वो तो कुछ दिव्यात्माएं होती हैं जो अपने पूर्व जन्मों के संस्कारों/कर्म के बलबूते इस चाटुकारिता के क्षेत्र में झंडे गाड़ती हैं। यह तो जितनी मधुर साधना है उतनी ही क्लिष्ट भी है। जिस ‘क्षुरस्यधारा’ का जिक्र कठोपनिषद करता है भवसागर से तरने के प्रक्रिया के लिए वैसी ही समझदारी, फंूक-फंूक कर चाकू की धार पर नंगे पांव चलने की जरूरत चाटुकारिता की साधना में भी पड़ती है। इसकी साधना में कितने और कैसे पापड़ बेलने पड़ते हैं यह तो एक सिद्ध मुख ही सही-सही वर्णित कर सकता है। यह श्रीफल (नारियल) के उलट बाहर से कोमल प्रतीत होने वाला और अंदर से कठोर फल है। जिसे पचा पाना अच्छे-अच्छों के लिए संभव नहीं है। हां, लेकिन जिन्होंने इसे पचा कर सिद्धि प्राप्त कर ली उनसे अधिक ‘तन-मन-धन’ से सुखी अन्य कोई नहीं। चाटुकार अपने आप में अत्यंत शक्तिशाली प्रजाति है। वह अपनी इस साधना में सिद्धि प्राप्त कर ले तो ‘जल को थल’ और ‘थल को जल’ बना कर प्रस्तुत करने में प्रवीणता हासिल कर सकती है। ऐसी एक कहानी भी प्रचलित है कि एक सनकी राजा की प्रतिदिन की सनक से पीड़ित प्रजा की मौज हेतु कुछ चाटुकारों ने उस राजा को एक दिव्य वस्त्र भेंट किया। दरअसल वस्त्र वगैरहा वह कुछ नहीं था बस एक छलावा था जिसकी विशेषता अत्यंत बढ़ा चढ़ाकर पेश की गई थी। राजा क्योंकि भांग खाए सा ही था सो मान गया और चाटुकारों के कहने पर अपनी अपी दिव्यता को दिखाने प्रजा के सम्मुख अकड़ कर दिव्य वस्त्रों-वस्तुतः नंगे ही निकल पड़ा। सब चाटुकार राजा के सामने उसकी दिव्यता में लगे चार चांद का वर्णन कर रहे थे और मन ही मन प्रजा संग पूरी मौज ले रहे थे। पर एक छोटे सरल और भोले बालक ने ‘राजा नंगा है’ कह कर उसकी दिव्यता का भंडाफोड़ कर दिया। बाद में राजा ने चाटुकारों का क्या किया कहानी में तो वर्णित नहीं हैं पर चाटुकारों के परिवार में प्रचलित मान्यता अनुसार चाटुकारों ने राजा को बहला-फुसला कर उसकी दिव्यता उसे ओढ़ाई रखी और खजाने से उसके एवज में खूब धन उगाहा। पर लेखक इस तरह के जोखिम न लेने की सलाह देता है जब तक इस क्षेत्र की पद्मश्री या उच्च पुरस्कार उसे न मिल जाएं। वैसे तो लोग अब बड़े सयाने हो गए हैं। इस तरह के पुरस्कार लौटा कर भी चाटुकारिता कर लेते हैं।
वैसे इसके सिद्ध साधक इसमें शामिल रिस्क फैक्टर की बहुतायत से आगाह करते हैं। असल में इसमें तय नहीं होता कि व्यक्ति विशेष जिसकी हम चाटुकारिता करने जा रहे हैं और जिसे फिलहाल हम बॉस, माईबाप कर संबोधित करेंगे हमारी किस बात से कब हत्थे से उखड़ जाए और कब लाड़ में अपने बगल में बैठा ले। फिर चाहे बातों का संदर्भ दोनों ही समय एक सा ही क्यों न रहे। बहुत मंझने के बाद यानी ढेर सारे अनुभव के बाद ये बातें समझ में आती हैं। किस तरह से अपनी ही कही बात को साहब के अनुकूल बनाना है यह भी बेहतर आना चाहिए। अभी जैसे कहा कि साहब कभी लाड़ में अपने बगल में बैठाना चाहे या कभी अपनी उतरन कमीज, पैंट, जूता आदि देकर आशीष मुद्रा करे तो आपको अच्छी तरह से मालूम होना चाहिए कि इसमें ढेर सारे डूज़ एंड डोंट्स है। अर्थात क्या करने योग्य है क्या नहीं। वैसे तो इसकी लिस्ट काफी लंबी है और इस पर  एक ‘चाटुकारिता महापुराण’ तो लिखना शेष है पर क्योंकि इस फील्ड के लोग बड़े घुन्ने यानी घिसी रकम होते हैं तो वो अपने अनुभवों को साझा बमुश्किल ही करते हैं। तो खैर जितना मुझे विश्वस्त सूत्रों से ज्ञान हुआ है उतना आपसे शेयर कर रहा हूं। जैसे बगल में बैठाए जाने पर भी वहां न बैठना बल्कि तुरंत चरणों पर बैठना बेहतरीन भविष्य बनाएगा। वहीं कमीज के बजाय पैंट, पैंट के बजाय जूते लेना कहीं श्रेष्ठ है। भरत राम जी की चरणपादुका से कितनी यशकीर्ति के भागीदार बने यह किससे ढका छुपा है। ये अलग बात है उनकी भावना अलग थी पर भावना अलग-अलग होने पर भी कभी-कभी परिणाम समान हो सकते हैं। अतः पौराणिक, धार्मिक, सामाजिक आदि आख्यानों से सीख लेते रहनी चाहिए। आपको कूप-मंडूक बन कर काम नहीं करना है। हां उसे नए जमाने से मिला कर फ़्यूजन बना कर पेश करें फिर चाहे कितने ही कंफ्यूजन रहे आपकी गाड़ी। एक बार चल पड़ी तो चल पड़ी। फिर किसकी हिम्मत है ‘आपकी सफलता आपने किस तरह से पाई’ यह पूछने की।
वैसे शुरू-शुरू में इस फील्ड में सफलता सुनिश्चित करने हेतु बड़े से बड़ा त्याग करना भी आना चाहिए। उसके लिए दिल मजबूत होना चाहिए। यूं भी इस फील्ड में अब गलाकाट प्रतिस्पर्धा पहले से कहीं और तीव्र हो गई है। अब तो लोग साहब की (वो साहिबा भी हो सकती है) खुशी के लिए कई कीमती, अनमोल सामग्रियों के साथ ही साथ अपने तन-मन-धन को सर्वस्व अर्पित करने के लिए प्रस्तुत रहते हैं। कई-कई विरले साधक तो अपनी जर, जोरू, संतान को भी निःसंकोच साहब की प्रसन्नता हेतु समर्पित करते रहते हैं। इसका लाभ भी उन्हें और उनके परिवार को बहुतायत में मिलता है। इसमें कतई संदेह नहीं पर इसमें अपने ‘जमीर’ को पूरी तरह ‘देश निकाला’ देना पड़ता है। यह आसान काम तो नहीं। स्थित प्रज्ञ साधक ही यह कार्य कर सकते हैं। लेकिन दिखाई देता है। सौभाग्य से इस कलिकाल में ऐसे साधकों की संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है। वैसे भी यह विकास की 21वीं सदी में होने वाली दौड़ है। कुछ लोग इस दौड़ में न शामिल होने के लिए अभिशप्त आजकल की भाषा में होते हैं। तो ऐसे लोग दूध से मक्खी की तरह निकाल फेंके जाते हैं। यद्यपि अव्यावहारिक और भोले होने से उन्हें यह समझ नहीं आता कि यह दंड उन्हें क्यों दिया जा रहा है? सो बार-बार चाटुकारिता के वरद हस्त के पुण्य प्रभाव से मृत्युकाल में भी पुनः-पुनः कायाकल्प कर ‘नवयौवन’ प्राप्त करने वालों को वो बड़ी जिज्ञासा से, फटी-फटी आंखों से आंख मलते हुए इस प्रक्रिया को देखने और समझने की कोशिश करते है। पर निर्बुद्धियों को जो जन्म से अंधे हों उन्हें अपना नाम ‘नयनसुख’ रखने पर भी क्या हासिल होगा भला? सो ऐसी दुर्लभ प्रजाति के संरक्षण हेतु लेखक यह लेख लिख रहा है। आशा है इसे पढ़कर जो उनके हित हैं उन्हें चेता कर ‘चाटुकारिता की महिमा’ से अवगत कराएंगे और उनके लिए सरकारी या गैर सरकारी ‘चाटुकारिता प्रशिक्षण’ शिविर लगवाए जाने को आंदोलन, धरना, प्रदर्शन आदि कार्य करेंगे। इससे इन गरीब, शोषित वंचितों की दहलीज पर थोड़ा-थोड़ा ही सही लालिमा लिए सुंदर भविष्य का सूरज। प्रकाश की किरणों को पहुंचा सकेगा सो अब का चुप साधि रहा बलवाना आइए चाटुकारिता का बिगुल बजा, गाल बजाएं और अपने-अपने ‘अभीष्ट व्यक्ति’ जिससे अपना स्वार्थ सधता हो फिर वो साहब हो, साहिबा यानी मैडम हो अधिकारी हो, नेता हो, सांसद हो, सभासद आदि कोई भी लग्गू-भग्गू क्यों न हो उसके चरणों में चाटुकारिता से भरा साष्टांग प्रणाम करें। और अपनी हैसियत में जितना कुछ हो परिवार सहित तन-मन-धन न्यौछावर करें। पुनः-पुनः स्मरण करना चाहूंगा और पूर्ण आश्वस्ति भी दूंगा कि यह घाटे का सौदा कतई नहीं है। अतः पूरे भाव से चाटुकारिता की चाशनी में जलेबी सा गोल-गोल घुमा कर अपना पूरा शरीर शर्करा से भर लें। जिससे साहब, आपके माईबाप उसका स्वाद लें तो हल्के से मुस्कुराते कहें क्या बात है और आपके सभी प्रतीक्षित कार्य दुष्कर, दुःसाध्य होते हुए भी तत्काल फलदायी हो जाएं। जय हो चाटुकारिता की। 
अंत में चाटुकारिता के क्षेत्र में नए शामिल हुए और इसमें शामिल होने के इच्छुक लोगों के लिए कुछ महत्वपूर्ण टिप्स के साथ इस लेख को समाप्त करना चाहता हूं।
1. आपको लचीला होना होगा ऐसे मानो आपके पास मेरळदंड हो ही नहीं। जमीर जैसी वस्तु विस्फोटक है उसे दूर फेंक कर सेवा करें।
2. क्षमा मांगने में संकोच छोड़ना होगा। यह काम बार-बार किया जा सकता है।
3. बॉस इज ऑलवेज राइट, बॉस हमेशा सही होता है यह पुरानी कहावत कंठस्थ कर लें और बहस कतई न करें।
4. बॉस के ख़ास लोगों से कोई पंगा न लें। फिर वह चाहे आपसे कितना ही जूनियर चपरासी, ड्राइवर आदि ही क्यों न हो।
5. साहब/मैडम का कुत्ता या मैडम/हबी को तो अपना परम गुरळ मानकर पूरी इज्जत करें। साहब/मैडम तो साक्षात परमेश्वर हैं ही।
6. उनकी प्रत्येक पसंदीदा चीजों/रळचि के क्षेत्रों को ताड़ने और संजीवन बूटी की तरह उसका पूरा पहाड़ लाने में कोई कसर न छोड़ें।
जैसा पहले भी कहा इस सबकी सूची लंबी है और वर्षों के अनुभव से आती है तो खैर उसकी चिंता से मुक्त, सच्चे मन से सेवा में लगे रहें। अगर आपने सही आदमी को पकड़ा है तो आपकी साधना थोड़े ही दिनों में रंग लाएगी और आपके पास वह सब होगा जिसको भोगने के लिए आपने इस धरा पर जन्म लिया है और इससे न केवल आपका बल्कि आपके परिवार, कुल, इष्टमित्रों सभी का तेजी से विकास होगा और विकास जिस तेजी से (आपकी समर्पण की निष्ठा के आधार पर) होगा निःसंदेह उतनी ही तेजी से आपके पीछे भी चाटुकारों का दल आगे-पीछे डोलेगा। यही आपकी वास्तविक सफलता की निशानी होगी।

Wednesday, 31 August 2016

राम राम रट ...21 पंक्ति


  1. राम राम रट श्री गणेश प्रथम पूज्य बन गए। 
  2. राम राम रट भोलेशंकर "तारकेश" बन गए। 
  3. राम राम रट नारद ऋषि निर्विकार बन गए। 
  4. राम राम रट वाल्मीकि आदिकविराज बन गए।   
  5. राम राम रट तुलसीदास भक्त शिरोमणि बन गए।
  6. राम राम रट हनुमान सर्वसिद्धिदाता बन गए।
  7. राम राम रट दशरथ कुल संग जगविख्यात हो गए। 
  8. राम राम रट जानकी ब्रह्मांडनायक मिल गए।   
  9. राम राम रट भरत भाई राम समान बन गए। 
  10. राम राम रट लखन भाई जगताधार बन गए। 
  11. राम राम रट शत्रुघ्न भाई रिपुदमन बन गए। 
  12. राम राम रट विश्वामित्र जनकल्याण कर गए।  
  13. राम राम रट अहिल्या के श्राप सभी मिट गए। 
  14. राम राम रट केवट वंशतारक बन गए। 
  15. राम राम रट कागभुशुण्डि कृपापात्र बन गए। 
  16. राम राम रट सुग्रीव,विभीषण राजपाट पा गए। 
  17. राम राम रट जीव अनेक जन्म सुफल कर गए। 
  18. राम राम रट पतित पंक में,"नलिन" बन खिल गए। 
  19. राम राम रट वरना तो अनमोल छन गए तो गए।
  20. राम राम रट,राम राम रट तन-मन सब निर्मल हो गए। 
  21. राम राम रट  सब जन मनवांछित फल पा गए।    


Monday, 29 August 2016

कबहुं नयन मम सीतल ताता


कबहुं नयन मम सीतल ताता 
होइहहिं निरखि स्याम मृदुगाता। सुंदरकांड १ ३/६ 
श्याम सलोनी रूप माधुरी छटा तिहारी
आँखें तरस रहीं देखने को छवि तिहारी।
मैं तो घिरी काम,क्रोध दानवों से भारी
अब तो ले लो सुध अविलम्ब खरारी।
तेरी विरदगाथा सदा भक्त हितकारी
मेरी अरज में भला क्यों देर भारी।
शंख,चक्र.गदा,पद्म चार भुजाधारी
विनती सुनो "नलिन"नैन बलिहारी।

Sunday, 28 August 2016

श्रीशंकरसर्पयाष्टक {हिंदी पद्य में अनुवादित }महिमामयी शिवपूजन स्तोत्र




कल्याण पत्रिका के शिवोपासनांक में शिव पूजनार्थ 8 पद्य वाले "श्रीशंकरसपर्याष्टकं"का हिंदी गद्य में पद्मश्री डॉ. श्रीकृष्णदत्तजी ने अनुवाद किया है। उसका ही पद्य रूप हिंदी में शिव भक्तों के आनंदार्थ एक विनम्र प्रयास मेरे द्वारा प्रस्तुत है-------
श्रीशंकरसर्पयाष्टक 
जय जय शिवशंकर "तारकेश" प्रभु तुम्हारी सदा-सदा ही जय होवे  
जय जय शिवशंकर "तारकेश" प्रभु तुम्हारी सदा-सदा ही जय होवे। 
भक्तों पर कृपा बरसाते अधरों की हँसी शरदचंद्र कांति को करती फीकी 
आप जगत के कारण स्वरुप हो,श्रीविग्रह छवि तिहारी गौर चंद्र सी नीकी।
नमन शैलजापति "नलिन"माल कंठ शोभा है जिनकी  छायी 
जटाजूट गंग तरंग विराजमान भाल दीप्ति सब जन है भायी।
हार सामान विशाल नाग वक्षःस्थल शोभित छवि न्यारी 
भक्त आनंद अभीष्ट वैभव सदैव ही प्रदानकारी। 
निमग्न स्तुति में ऋषि मुनि देव समस्त भुलोकवासी 
तेरी कृपा से हे आशुतोष हम तो हो सके सुखरासी।
विराजित हिमाच्छादित कैलाश,पारिजात वृक्ष तले ही 
त्रिनेत्रधारी,शूलपाणि,शत्रुमर्दन पिनाकधारी सदा ही।
हे अखिलेश्वर छवि आपकी शुभ चित्त मुनिजन विराजती 
नमन श्रद्धा विश्वास से करता हूँ आपको पाने को सद्गती।
कर्म,प्रारब्ध से मुक्त कल्याणकारी हे सदाशिव शम्भो 
हृदय से मेरे समस्त पाप को मुक्त कर दीजिये प्रभो। 
नित्य मंगल विधान और "नलिन"चरण अनुराग दीजिये 
शीघ्र ही समस्त विपत्तियों को हमारी नष्ट नाथ कीजिये। 
अमरता पाने के इच्छुक देव अमृतपान करना थे चाहते 
छीरसागर मंथन से प्रगट विष हुआ तो भयभीत हो कांपते। 
कृपासागर भोलेनाथ द्रवित तब हलाहल पान कर गए 
ऐसे आदिदेव मृत्युंजय भगवान् के चरण नत हम हुए। 
अज्ञान अन्धकार जगत में विलीनव्याकरण का अलोक किया 
पाणिनि को कृपादृष्टि से प्राचीन सूत्र उद्घाटित आपने किया। 
ऐसे त्रिपुरारी भगवान् शिव को जो ज्ञान के हैं ज्ञानदाता 
नमन करता हूँ मैं प्रभु आप तो हैं परम आंनददाता। 
मस्तक विराजित आपके पवित्र गंगा,चंद्र की निर्मल किरणावली 
पापविमोचक,भक्तकष्टविनाशकारी,सदा जय हो तेरी विरुदावली।      

  



Friday, 26 August 2016

"मौन" श्रद्धा सुमन


सहारा इंडिया परिवार के हमारे एक कार्यालय सहयोगी मनोज श्रीवास्तव "मौन" के असमय काल कवलित होने पर ह्रदय छुब्ध है। सादर श्रद्धा सुमन   ...... "मौन"



"मनोज" अंततः हो गया "मौन" है
याने काम,इच्छा से परे "मौन"है।
तो अब शेष रहा भला क्या है ?
परमसत्ता लीन हुआ जब "मौन" है।
दरअसल हर शब्द तो भोथरा है
झूठ,मक्कारी के रस से भरा है।
शुचितापूर्ण तो एक मात्र "मौन" है
मायावी पैंतरों से मुक्त तो "मौन" है।
सहारा कौन किसका कब तक रहा है?
जगत-व्यापार तो निष्ठुर बड़ा "मौन" है।  
समय-असमय उसे कहाँ होश है
वो तो अपनी मस्ती में "मौन" है।
इसी कालचक्र के आगे पंक्तिबद्ध हैं
हम,तुम सभी होने को "मौन" हैं।   

Wednesday, 24 August 2016

नील 'नलिन' सी आभा तेरी, देख देख हूँ दंग


तेरी न्यारी अलकावलि में उलझ उलझ कर रह जाये मन । 
ओ मेरे नटखट प्यारे तू तो सदा सदा सबका है मनमोहन।
जाने कैसी कैसी लीला करता समझ न पाए मन ।
कभी पुचकारे तो फिर छन में विचलित करता मन। 
निष्ठुर छैल छबीले, सुन ले मेरी, तेरी तुझको कसम। 
कब तक दांव पेंच दिखाए अपने, मुझको मेरे सनम। 
गली गली में डोला जब जब मिला न तेरा संग। 
थक कर जा बैठा तो तूने, लगा लिया हैं अंग। 
नील 'नलिन' सी आभा  तेरी, देख देख हूँ दंग। 
कभी कभी क्यों दिखलाता, हर पल दिखला ये रंग। 

Sunday, 14 August 2016

साई भुला दूँ ये दुनिया सारी



साई भुला दूँ ये दुनिया सारी
करता रहूँ बस तेरी चाकरी
ये ही इच्छा मेरी अधूरी
कर दे इसको जल्द तू पूरी
वर्ना कट जाएगी उम्र ये सारी
कैसे होगी फिर चाह ये पूरी
माया में नित डूबी काया मेरी
ले उबार,दे अपनी मंजूरी। 

Saturday, 13 August 2016

शिव रूप छोड़,हनुमान बन भक्ति सबको सिखायी

बजरंगबली भला तेरी महिमा कहो किसने न जग गायी।
शरण आया जो तेरी हर मुश्किलों से निजात पायी।।
राम नाम महिमा अमित,अपार तूने ही फैलायी।
शिव रूप छोड़,हनुमान बन भक्ति सबको सिखायी।।
अष्ट-सिद्धि,नव-निधि प्राप्त कर  जग हित लगायी।
हर घडी राम-राम बस यही एक अलख जगायी।।
समस्त कामना से दूर तूने बस राम उर लौ लगायी।
याद दिलाए बल तिहारा तब कहीं महिमा दिखायी।।
श्री राम के भक्त हित सदा करुणा अपार तूने दिखायी।
हर असंभव कार्य कर उसे श्री राम की प्रभुता बतायी।।


Friday, 12 August 2016

ये माना कि सारी कायनात कतरा-कतरा तेरा ही रूप है



ये माना कि सारी कायनात कतरा-कतरा तेरा ही रूप है। 
जहाँ बैठ गया साकार रूप वहां की बात पर कुछ और है।। 
तेरे रहमो-करम से भला कौन यहाँ महफूज़ नहीं है। 
पिला दी दो बूँद आँखों से जिसे उसकी मस्ती कुछ और है।।  
दुनिया बनाने वाले रंग कितने बेहिसाब तूने इसमें भरे हैं 
रंग दे अगर तू अपने ही रंग में तो वो रंग कुछ और है।।  
तुझसे मिलकर बात करने को जाने कितने सपने संजोये हैं। 
दिल में रहकर मगर पर्दादारी की आदत तेरी कुछ और है।।  
तेरी एक झलक,पद्चाप के लिए धड़कता दिल मेरा है। 
"उस्ताद"सुना है सबसे जुदा,रसीला तेरा रूप कुछ और है।।  

Thursday, 11 August 2016

तुलसी और श्रीरामचरितमानस



बचपन में एक निबंध पढ़ा था उसमें ‘मेरा प्रिय ग्रंथ’ के अंतर्गत रामचरितमानस को आधार बनाया गया था। उस समय थोड़ा अटपटा सा लगा था। शायद इसलिए कि उसे तो हम धार्मिक ग्रंथ के रूप में जानते थे। प्रिय जैसा संबोधन कुछ अलग सा लगा था। जैसे प्यारी मां, प्यारे पिता जैसी बात समझ में नहीं आती । मां, मां है, पिता, पिता है। उसमें भी अच्छा, बुरा कुछ हो सकता है क्या? ऐसा उस समय लगा था। खैर उस समय से अब तक जितनी बार भी भाव, कुभाव मानस का पाठ होता जा रहा है वह उतनी ही प्रिय से प्रियतर होती जा रही है। अब ये तुलसीदासजी की सरल, सहज भाषा में लिखे जाने के कारण है, मेरी रामजी के प्रति आस्था के कारण है, शिवजी द्वारा इस कृति पर अपने हस्ताक्षर किए जाने से मंत्र-मंत्र हुए प्रत्येक शब्द के कारण है या ईश्वर की विशिष्ट अनुकंपा के कारण है कुछ कह पाना ठीक-ठीक संभव नहीं।
हमारे पैतृक स्थल पिथौरागढ़, उत्तराखंड वाले घर में तो रामायण का पूरी भव्यता से पाठ संभवतः 5-6 माह में होता ही रहता था। लखनउळ के घर में भी बहुधा ऐसा संयोग बनता रहता था। कम कहने को मोहल्ले, रिश्तेदारी, मित्रों, जान-पहचान के घर में भी इसका सस्वर पारायण होता रहता था। मानस की पंक्ति-पंक्ति में ही इतना आकर्षण है कि वह बरबस आपको अपने में समेट लेती है। जैसे मां अपने नवजात शिशु को स्तनपान कराते चलती है। वैसा ही कुछ वात्सल्य,अमृतपान का सुख मानस कराते चलती रहती है। दूसरी बात उसमें अद्भुत संगीत का जादू है। वेदों की ऋचाओं का सस्वर पाठ जैसे कानों को दिव्य अनुभूति का पान करता है। वैसा ही कुछ बड़ा स्वाभाविक सा किसी भी धुन, किसी भी ताल पर इसका पारायण अंतर्मन को तरंगित करने में समर्थ है।
संतप्रवर तुलसीदासजी ने अनेक रचनाएं अपने जीवनकाल में की लेकिन श्रीरामचरितमानस और हनुमान चालीसा का सा प्रभाव तो किसी भी ग्रंथ के मुकाबले ‘भूतो न भविष्यति’ लगता है। इसलिए और भी क्योंकि इनकी पकड़ का क्षेत्र बड़ा व्यापक है। जनसामान्य से लेकर तथाकथित गंवार (वस्तुतः जो कहीं ज्यादा रामजी के निकट हैं) और विशिष्ट बुद्धिजीवियों तक। कोई ऐसा नहीं है जो उसके रसधार में स्नान का इच्छुक न हो। कोई सामान्य रामकथा के आधार पर उसका पारायण कर प्रसन्न होता है तो कोई उसमें छुपे अलौकिक भाव रूपी मोतियों को एकत्रित कर सबको चमकृत कर देता है तो कोई उससे ही अपने राम को रिझाने में व्यस्त रहता है।
तुलसी की रामकथा अलौकिक है, भव्य है, भक्ति की पराकाष्ठा है, सामाजिक व्यवस्था की नींव है, भगवान को भक्त की अनुपम भेंट है। क्या नहीं है यह? समस्त श्रेष्ठ ग्रंथों वेद, वेदांग, पुराण, उपनिषद - सबका सरल, सहज शब्दों में सार है इसमें। मुझे तो इसके अलावा और कोई ग्रंथ आंखों में बसता ही नहीं। वैसे सच तो ये है कि इसके अतिरिक्त और कोई ग्रंथ पढ़ा ही  नहीं। इसके ही सावन में अंधा हुआ हूं तो भला और क्या सूझेगा। सब हरा-हरा, जितना भी समझ आ रहा है वो तुलसीदासजी की ही कृपा का परिणाम है।
इधर आजकल लोगों में गुरु बनाने की प्रवृत्ति जोर मारती दिख रही है फिर साथ ही मेरा गुरु  तेरे गुरु  से श्रेष्ठ हैं ऐसे भी बात देखने में आ रही है। टेलीविजन और मीडिया के बढ़ते प्रभाव से इसका असर काफी व्यापक हुआ है। उन पर प्रसारित प्रवचनों से सरल बुद्धि, भक्ति भावना से ओतप्रोत लोग गुरु  और गुरुघंटालों में भेद कहां कर पा रहे हैं। एक अजब भेड़-धसान सा चित्र सामने आ रहा है। जबकि हमारी संस्कृति में गुरु  ही अपने शिष्य को खोजता है। जो भी होगुरु तो गुरु ही है उस पर कुछ टिप्पणी शोभनीय नहीं लेकिन मुझे लगता है कि तुलसीदासजी के महान ग्रंथ श्रीरामचरितमानस के रहते किसी अन्य को गुरु बनाने की आवश्यकता ही क्या है? गुरु  तो वही है न जो आपको सांसारिक, आध्यात्मिक जीवन से जुड़ी समस्त समस्याओं से निजात दिलाने में पथ प्रदर्शक की भूमिका निभाए। और परमात्मा से आपका मिलन करा दे। श्रीरामचरितमानस इस दृष्टि से शतप्रतिशत खरा उतरता है। वो आपको पीतल से सोना बनाने की सामर्थ्य रखता है। धीरे-धीरे वह आपका कायाकल्प करने लगता है। गुरु  की तरह वह आपसे संवाद करता चलता है और हर छोटी-बड़ी समस्याओं का सामाधान देने लगता है। बस उसके सम्मुख अपने को जैसे हैं वैसे प्रस्तुत कर दीजिए। अपनी खामियां खुद समझ में आने लगेंगी। सही दृष्टि, सही व्यक्तित्व, सही निर्णय लेने की क्षमता स्वतः पैदा होने लगेगी। श्रीरामचरितमानस का दैनिक रूप में नियमित पाठ सुबह-शाम या कि समयाभाव में एक ही बार 5 से 7 दोहों को लेकर किया जाना गुरु की हमारे जीवन में मंगलकारी उपस्थिति दर्ज करा देगी। इसमें संदेह नहीं। श्रीरामचरितमानस के अंतिम छंद में तुलसीदासजी इस बात की गारंटी भी देते हैं ‘सत पंच चौपाई मनोहर जानि जो नर उर धरै। दारुन अविद्या पंच जनित बिकार श्री रघुबर हरै।।’ सो रामचरिमानस से अधिक कल्याणकारी ग्रंथ कौन होगा जिसका पारायण पुनः तुलसी के ही शब्दों में ‘कलिमूल मनोमल धोइ बिनु श्रम राम धाम सिधावहीं’ की आश्वस्ति देता हो। सो तुलसी जयंती पर तुलसीदासजी का शतकोटि अभिनंदन कि उनकी साधना के पुण्य प्रताप से हमें श्री रामचरितमानस सा दुर्लभ रामभक्ति की कृपा-सरिता में स्नान का अवसर दिलाने वाले ग्रंथ का उपहार मिला । इसका पूरे मनोयोग से हम पाठ करते चलें तो न केवल तुलसीदास जी को हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी अपितु अपने जीवन की राह भी रामजी के श्री चरणों तक नतमस्तक होने के लिए प्रशस्त हो जाएगी।
श्री राम जय राम जय जय राम।

Wednesday, 10 August 2016

संत प्रवर तुलसीदास श्रध्दा सुमन

वेद,पुराण,उपनिषद जैसे सब ग्रंथों का सार। 
शिव-मानस सदा रहा है,इनका शुभ आगार।।
जगद्गुरु ने उसी तत्व का,लेकर फिर आधार। 
रचा राम का निर्मल विस्तृत चरित अपार।।
शिवशंकर के वरद हस्त का पाकर आशीर्वाद। 
किया श्रवण "तुलसी" ने उर में रामकथा संवाद।।
भाव समाधि में किया फिर,झूम-झूम कर गान। 
रामचरितमानस से उपजा,जन-जन का कल्यान।।
मंत्रबद्ध है रचना सारी,सबका है ऐसा विश्वास। 
पढना,सुनना भरता अंतरमन में बड़ी मिठास।।
राम नाम के भक्त अनूठे,संत सरल तुम जग विख्यात।
भक्ति देकर सिय-राम की "नलिनदास" को करो सनात।। 


Tuesday, 9 August 2016

विकास गीत सबके लिए माँ भारती ने गुनगुनाया।।

नव विभा,नव उल्लास,नव रंग हर दिशा छाया।
नव दिवाकर,स्वतंत्रता जब प्रभात लिए आया।।
रंग केसरिया बलिदान,त्याग और शौर्य का।
हरा उत्साह,विकास का,शांति सन्देश लाया।।
अशोक चक्र काल प्रवाह शाश्वत सूचक बना।
तिरंगा पूरी आन,बान,शान से सदा फरफराया।।
नोजवानों के जोश,शक्ति से अभिभूत भारत रहा।
दुनिया में नित नाम,यश का डंका  बजाया।।
युद्ध मैदान में शक्ति काली ने रौद्र रूप दिखाया।
शिव स्वरुप फौज़ ने जल,थल,नभ तांडव रचाया।।
शांति दूत बन कर सदा विश्व भाईचारा बढ़ाया।
"वसुधैव कुटुम्बकम"का मन्त्र जन-जन सिखाया।।
सब हों प्रसन्न,सबमें नित तेज़ स्वाभिमान रहे।
विकास गीत सबके लिए माँ भारती ने गुनगुनाया।।

Monday, 8 August 2016

मोर दास कहाइ नर आसा। करइ तौ कहहु काह बिस्वासा।।७/४५/३ #ramcharitmanas #uttarkand




मोर दास कहाइ नर आसा। करइ तौ कहहु काह बिस्वासा।।७/४५/३
---------------------------------------------------------------
श्रीरामचरितमानस के उत्तरकांड में श्रीरामजी अपनी प्रजा के सम्मुख जो अपने विचार रख रहे हैं उनमें यह एक चौपाई बड़ी मार्मिक और गूढ़ है। प्रायः हम अपने आप को रामभक्त मान इतराते हैं और यह भी मानने का दावा करते हैं की श्रीरामजी की हम पर अनन्य कृपा है। सो यह तो बड़ी अच्छी बात है लेकिन यह सब कथनी में है करनी में तो वस्तुतः बड़ा भेद है। इसी ओर रामजी इशारा करते हैं। दरअसल सांसारिक व्यवहार में हम इतने आकण्ठ डूबे रहते हैं कि हमें पता ही नहीं होता कि हम क्या कहते हैं और क्या आचरण प्रत्यक्ष करते हैं। हमारा पूर्ण समर्पण श्री राम चरणों में होता ही नहीं हैं। हम तो केवल मुँह दिखाई करते हैं। थोड़ा सा लाभ दिखने पर हम किसी के भी आगे दंडवत हो जाते हैं। हमें लगता है ये आदमी हमारे काम का है तो बस हमारी परिक्रमा उसके आगे पीछे शुरू हो जाती है। कई बार तो स्थिति यह होती है कि व्यक्ति उच्च प्रशासनिक ओहदे में है,सामाजिक रूप से नामी-गिरामी है, आर्थिक रूप में अत्यंत श्रेष्ठ है या जोड़-तोड़ में अव्वल हे तो हम उसके इतने मुरीद रहते हैं इतने पलक-पावंडे बिछा उसका अभिनन्दन करने को व्यग्र रहते हैं की पूछो मत। और ये प्रक्रिया हमारे मस्तिष्क में हर समय चलती रहती है। हमें तत्काल में कोई काम उससे न भी हो तो भी हम उससे हर समय डरे,सहमे रहते हैं। उसके आगे उसका प्रिय बनने के लाखों जतन जाने-अनजाने करते रहते हैं। बस इसी कामना से कि वो हमसे रुष्ट न हो जाए। हमारी कही किसी बात को अन्यथा न ले ले।  श्रीरामजी जो सबके कारण हेतु हैं उन पर हमारी नज़र जाती ही नहीं है। "चलो छोड़ो सबको,अपने राम को मनाएं "ऐसा भाव कहाँ कितनी बार हमारी कठिनाईओं मुश्किलों दुःख,तखलीफ में आता है?वैसे ऐसा नहीं है कि हम ख़राब समय में ईश्वर का स्मरण नहीं करते हैं। खूब करते हैं। धुप,दीप,मेवा,मिष्ठान,माला,जप,यज्ञ क्या नहीं करते हैं। उसे भी बड़े-बड़े प्रलोभन देते हैं मानो हम न देंगे तो उसका गुज़ारा ही नहीं हो पायेगा। लेकिन वो  चाहता  है जो,वो कहाँ दे पाते हैं। अपना मन कहाँ दे पाते हैं उसे। खाली नाटक जितने चाहे करा लो। कभी-कभी तो पराकाष्ठा होती है कि हम उसको अपना मनोवांछित कार्य सौंप कर भी उसको सहूलियत करने का भी इंतजाम करने लगते हैं मसलन हमारा नॉकरी में ट्रांसफर हो रहा है तो उसमे भी एक दो या तीन विकल्प रख देते हैं। प्रभु अच्छा यहाँ नहीं तो वहां करवा देना और वहां भी नहीं तो ये तीसरे विकल्प में तो कर ही  देना।मानो सारे जहाँ का कार्यपालक अब इतना तुच्छ हो गया कि उसे भी स्पेस चाहिए,सहुलियत चाहिए। पहले तो क्या वो अपने भक्त को इधर-उधर दौड़ाएगा?और अगर दौड़ाएगा तो इसमें भी भक्त का हित  ही तय होगा। तो हम उस पर ही क्यों नहीं सब छोड़ देते। चलो ये नहीं तो सर्वशक्तिमान मानते हुए एक स्थान विशेष का आग्रह/दुराग्रह (जो भी हो)क्यों नहीं कर  लेते। अगर उसने हमें सुधारने की ही ठानी है तो क्या लखनऊ क्या काशी?सबहीं भूमि गोपाल की। ज़र्रा-ज़र्रा उसका पत्ता-पत्ता उसका। एक छन में तो हमारे सारे सारे संकल्प-विकल्प वो भुला सकता है। " करहिं विरंचि प्रभु,अजहिं मसक से हीन'तो जब ऐसे परम पुरुषोत्तम की बाहं  थाम ली तो फिर संशय कैसा।  दूसरे किसी व्यक्ति की शरण का क्या ओचित्य?वो भला हमारे कितने और किस-किस प्रश्नों का समाधान दे सकता है भला। अंततः शरण तो उस  करुणा सागर पर ही जा कर ठौर पायेगी। वो ही हमारे प्रश्नों का सटीक समाधान दे सकता है क्योंकि उन प्रश्नों को रचा  भी तो उसने ही है ,हमारे लिए। और जब रामजी स्वयं मूर्छा से जगा रहे हों ,याद दिला रहे हों कि भक्त तुम मुझे अपना मानते हो तो फिर अन्य के आश्रित क्यों होते हो?उठो, जागो,चेतन हो और अपने मेरे संबंधों को पहचानो तो विलम्ब किस बात का करें?तो भक्त तो बहुत कहला चुके उनका। अब उनका एक कहना भी मान कर   चल पडें दो कदम इस संसार सागर में तो यह भवसागर गऊ के खुर जितना ही छोटा हो जायेगा। जय श्री राम। 

Friday, 5 August 2016

#RIO #OLYMPIC--2016(small poetry)

मिशन ओलंपिक का बज गया बिगुल।
हार हो की जीत हो मच गया शोरगुल।।
उछलते-कूदते, दौड़ते-भागते।
देशभक्ति का अपना गीत गाते।।
एड़ी-चोटी का जोर लगा रहे।
एथलीट सारे दमखम दिखा रहे।।
स्वर्ण, रजत, कांस्य कुछ मिले।
करतब जी तोड़ सब कर चले।।
कुश्ती, दौड़, निशानेबाजी, तैराकी।
खेल अनेक तीरंदाजी और हॉकी।।
207 देशों की भागेदारी।
28 खेल 306 स्पर्धा की तैयारी।।
5 से 21 अगस्त रस्साकसी मुकाबले की।
"रियो"हो जीत बस खेल भावना की।

Friday, 29 July 2016

आओ चलो अब हम मरने चलें,जीवन में अपने कुछ करने चलें।




आओ चलो अब हम मरने चलें,जीवन में अपने कुछ करने चलें। 
हर तरफ भ्रष्टाचार का बोलबाला ,हर घडी घटनाओं का अम्बर काला। 
बलात्कार,खून,रंजिश,डकैती ;दुश्मन ही नहीं अब भाइयों में भी होती। 
नेताओं में ईमान था भला कहाँ;कहो पहले भी कब सहज-सुलभ रहा। 
अब तो वो नंगई में उतारू हो रहे;सत्ता की खातिर सारे कुकर्म कर रहे। 
यही हाल तथाकथित बुद्धिजीवियों का है;मीडिया तो दो हाथ आगे खड़ा है। 
तो यही देख,सुन,और झेल कर ,करता हूँ आह्वाहन सबका हाथ जोड़ कर। 
मुझे मालूम है मेरे इस बुलावे में;कुकर्मी,बुद्धिजीवी पड़ेंगे नहीं बहलावे में। 
आएंगे तो बस भोले-भाले लोग;या की फिर आतंक मचा रहे लोग। 
दरअसल आतंकी को तो पक्का है;हूरों का संग मिलना ही मिलना है।
ऐसी घुट्टी उनके आका पिला रहे;चाहे खुद दुनिया में रहते जश्न मना रहे।
हाँ पर एक ऐसी कौम बड़ी है;जो बिन लालच मरने तत्पर तैयार रही है। 
निरीह बकरे के जैसी,एक आदेश पर ;खुद की गरदन दुश्मन से कटवाने पर।
हाथ बंधे,मुख बांधे,कभी न उफ़ करते;मरने को तैयार  पत्थरबाजों के चलते। 
यद्यपि कुकर्मी,बुद्धिजीवी,दलाल मीडिया वाले;उड़ाएंगे उपहास चाहे हम हों या फ़ौज़ वाले। 
फ़ौज़ ही करती अत्याचार ऐसा ये फैलाएंगे;और हमारी बेमौत आत्महत्या बताएंगें। 
माना मौत हमारी आत्महया ही होगी;पर वो तो मज़बूरीवश एक बार ही होगी। 
लेकिन देशद्रोहियों को कैसे हम समझाएं;इनके टूटे आईने कैसे इनको दिखलायें। 
सांस-सांस पर आत्महत्या करते जो रहते ,राष्ट्रद्रोह के डी.एन.ए. संग ही जो जीते रहते। 

Thursday, 28 July 2016

साईं कृपा का विशिष्ट अनुभव एक भक्त के साथ (काव्य रूप में )

साईं कृपा का सच्चा विशिष्ट अनुभव एक भक्त के साथ (काव्य रूप में )
मेरे एक आत्मीय को हुए इस लंबे अनुभव को संक्षिप्त में काव्य रूप में मैंने बस लिखा है।एक विशेष बात उसके साथ ये भी है की वो ध्यान करता तो साई का है पर उसे दर्शन यदा -कदा महाराज (नींबकरोली जी) का होता
है।


 सूर्योदय से बहुत सबेरे उठा आज में जब
तन-मन,खिला-खिला लग रहा था तब।
हलकी-हलकी सी देह थी मेरी सहज-सरल
 अधरों पर थी छायी मीठी मुस्कान तरल।
कराग्रे वसते लक्ष्मी,कर मध्ये सरस्वती
मंत्रोच्चारण संग हाथ की छवि फिर देखी।
छमा मांगते विनत भाव धरती माँ से
पाँव धरे नीचे तब मैंने अपने  पलंग से।
तो लगता था जैसे एक नशे में हूँ
भला कहाँ मैं अपने होश में हूँ।
आँखों में छाया है,एक सुरूर सा लगता
सपना यह जगत है सारा,ऐसा था लगता।
जोगिया,भगवा,या कि केसरिया,काषाय रंग
जैसे धीरे-धीरे चढ़ता जा रहा मेरे अंग-अंग।
गोशल में जा जब मैंने फुहार-स्नान लिया
जोगिया रंग मनो पोर-पोर है पोत लिया।
सावन के अंधे को जैसे सब हरा ही दिखता
मुझको दिखता था बस गेरू ही लिपा-पुता ।
बार-बार काटी चिंगोटी मैंने खुद को
स्वप्न मिटा,हकीकत में लाऊ खुद को।
 कहाँ दूर पर,दिखता था बस वही एक रंग
वो रंग जो बस गया था मेरे हर अंग-अंग।
घर से बाहर जाना था,जहाँ आज मुझे
रंग सुरूर ले गया,ठेलते कहीं और मुझे।
कहाँ था आज मैं जरा भी,खुद के वश में
पहुँच गया था चलते-चलते,अन्य जगह में।
इस जगह तो सब जैसे मेरे ही रंग रंग था
कूचा-कूचा बिखरा हुआ बस रंग गेरुवा था।
जैसे-तैसे देर रात फिर खा,पी घर आया
मगर रंग गेरुआ आँखों से कहाँ उतरने पाया।
पलंग पर जाकर लेट गया फिर चुपचाप सोचते
क्या हुआ अजब मुझे आज बस यही सोचते।
तभी दिखी श्री साईसतचरित खुली मेरे सिरहाने में
नासिक के मूले शास्त्री की घटना वर्णित थी जिसमें।
वस्त्र को रंगने गेरू लाना उसमें साई ने था फरमाया
कल रात यही पढ़ते-पढ़ते जाने कब था मैं सोया।
तो बात ये थी जो अब मेरी समझ में आयी
साई ने कृपा-दृष्टि से दुनिया मेरी रंगवायी।
अपने ही रंग में साई  रंग दे मेरी काया भगवा
यही प्रार्थना अन्तरमन की सुनली आज देवा।
क्या कहूँ,कैसे कहूँ मेरे तो हैं लब सिल गए
अभिभूत हूँ बस रोम-रोम श्रद्धा से खिल गए।