Sunday, 11 September 2016

#श्रीरामचरितमानस में #शिव तत्व

जटा मुकुट सुरसरित सिर लोचन "नलिन" बिसाल।

 नीलकंठ लावन्यनिधि सोह बालबिधु भाल।।(१/१०६)






तुलसीदासजी की लेखनी द्वारा रचित श्रीरामचरित भक्ति गाथा का महाकाव्य श्रीरामचरितमानस,शिव के बिना जो "सत्यम शिवम् सुंदरम" हैं,अधूरा है जैसे शरीर बिन प्राण के। स्वयं तुलसी स्वीकारते हैं कि "संभु प्रसाद सुमति हिय हुलसी,रामचरित मानस कबि तुलसी" (१/३५/१) और यह रामचरितमानस नाम भी उनका दिया नहीं है यह शिव का ही  का दिया है क्योंकि "रची महेश निज मानस रखा।पाई सुसमउ शिव सन भाखा। "(१/३४/१० )"तातें रामचरितमानस बर। धरेउ नाम हियँ हेरि हरषि हर। (१/३४/११)अतः रामचरित के सूत्रधार तो शिव ही हैं जिनके निर्देशन में यह काव्य रचा गया है। इसलिए प्रारम्भिक पंक्तियों  में गणेश पूजनोपरांत तुलसी "श्रद्धाविश्वासरूपिणौ" के रूप में शिव और उनकी क्रिया शक्ति शिवा का स्मरण करते हैं। सही भी है की बगैर श्रद्धा और विश्वास के ईश्वर की परछाई भी कहाँ दिख सकती है।अतः उच्च चेतना या प्रज्ञा में जैसे-जैसे श्रद्धा विश्वास की भक्ति धारा सतत प्रवाहमान हो दृढ़ता प्राप्त करती है तब जाकर कहीं सुबुद्धि,बल,विवेक संपन्न श्री गणेश का अवतरण होता है जो राम (परमेश्वर) नाम  की महिमा को वास्तविक रूप में समझ पाता है। "महिमा जासु जान गनराऊ। प्रथम पूजिअत नाम प्रभाऊ।(१/१८/१४)

अतः यह निर्विवाद है कि बिना शिव को उनकी समग्रता के साथ जाने अपना राम से मिलना संभव नहीं या कि परम कल्याण संभव नहीं। यही कारण है कि अपने परम कल्याण की इच्छा रखने वाले भरद्वाज मुनि जब याज्ञवल्क्य ऋषि को अनुरोध पूर्वक रोककर राम और उनकी कथा का मर्म समझना चाहते हैं तो याज्ञवल्क्य जी उन्हें पहले शिव कथा सुनाते हैं अर्थात विश्वास की कथा। जो एक प्रकार से उनकी परीक्षा ही है जो एक गुरु अपने अधिकारी,सच्चे शिष्य की तलाश हेतु करता है।  दरअसल शिव/विश्वास गाथा इतनी आसानी से हजम होने वाली नहीं है। सती जो दक्ष(प्रवीणता)की पुत्री होने से बुद्धि/चतुराई की प्रतीक हैं वे शिव से विवाह उपरांत भी मन मिला नहीं पायीं और तार्किक दृष्टि को ही प्रमुखता देने के कारण अगस्त्य ऋषि के आश्रम में शिव संग राम कथा सुनने गयीं भी तो अपने पति के वचन पर ही संशय या अविश्वास कर बैठीं। अंततः उन्हें बाद में अपनी महान त्रुटि का आभास होने पर शरीर छोड़ कर श्रद्धा के रूप में पार्वती नाम से अवतरित होना पड़ा और इस स्वरूप  में उन्होंने विश्वास (शिव) के साथ सुंदर तालमेल बैठा कर रामकथा का मर्म हृदयंगम करने में सफलता पायी। हालाँकि नव जन्मोपरांत पार्वतीजी की तो मनःस्थिति परिवर्तित हो चुकी थी किन्तु उनकी माँ मैना एवं अन्य परिवार या समाज की स्थिति जस की तस थी जो जीव की स्वाभाविक स्थिति है। अतः शिव के दुल्हे के रूप में "तन बिभूति पट केहरि छाला "जैसी विचित्र साज-सज्जा और तिस पर "सोने में सुहागा " से उनके गणों की "कोउ मुखहीन बिपुल मुख काहू" सी उपस्थिति ने पार्वती  की माँ को भयाक्रांत कर दिया जिससे वे इस विवाह के लिए तैयार नहीं हो रहीं थी। अंततः संत नारद के उपदेशोपरांत उनको शिव पार्वती के वास्तविक स्वरुप का ज्ञान हुआ और विवाह संभव हो सका।तो इसी कारण याज्ञवल्क्य,भारद्वाज को भली-भांति परखना चाहते हैं क्योंकि सामान्य जीव ईश्वर पर निष्ठा की बात,उनके साक्षात्कार की बात तो कहता  है पर उसके पास तक पहुँचाने वाले दुर्गम पथ पर चलने का हौसला उसके पास अंततः दिखाई नहीं देता। ये जो शिव के भयोत्पादक गण हैं वो विश्वास तक पहुँचाने में हमारी उधेड़बुन के ही प्रतीक हैं। इसलिए स्वयं रामजी के मुख से भी मानस में कहलवाया गया है "औरउ एक गुपुत मत सबहि कहउँ कर जोरि। संकर भजन बिना नर भगति न पावइ मोरि। "(७/४५)

मानस में कहा गया है "श्रद्धा बिना धर्म नहीं होई "(७/८९/४) तो धर्मी होने को श्रद्धा चाहिए ही चाहिए और धर्ममय जीवन का यदि पाणिग्रहण विश्वास संग हो तो ही वास्तविक भक्ति हो पायेगी जिसके बगैर राम(परमेश्वर) की कृपा/साक्षात्कार संभव नहीं। "बिनु बिस्वास भगति नहिं,तेहि बिनु द्रवहिं न राम। "(७/१०/क ) लेकिन यह विवाह तो बड़ा कठिन है तभी तो तुलसी कहते हैं "चरित सिंधु गिरिजा रमन बेद न पावहिं पारु। बरनै तुलसीदासु किमी अति मतिमंद गवारु। "(१/१०३) यह शिव,कल्याणरुपी विश्वास जब जीवन में आ जाता है तो वह "रघुपति व्रतधारी " की पराकाष्ठा में पहुँच "बिनुअघ तजी सती असि नारि" का विकट संकल्प ले सकता है।क्योंकि विश्वास में ही यह ताकत होती है कि वह मन,कर्म, वचन से "उमा कहउँ मैं अनुभव अपना सत हरी भजन जगत सब सपना। " को अपने आचरण में प्रगट कर सके। इसीलिए सती के झूठ बोलने पर भी शिव "हरि इच्छा भावी बलवाना ह्रदय बिचारत संभु सुजाना "(१/५५/६) स्वीकारने का साहस रखते हैं जबकि "भाविउ मेटि सकहिं त्रिपुरारी" के अनुसार विश्वास के बल पर असम्भव भी संभव होते हैं। "जेहि पर जेहि को सत्य सनेहु सो तेहि मिलहिं न कछु सन्देहू " लेकिन कल्याणकारी शिव का विश्वास तो प्रभु के प्रत्येक कार्य में समर्पण की भावना रखता है।

शिव में तीन अक्षर हैं। श,इ,व। श का अर्थ है शयन या माया मोह से परे समाधिअवस्था में परमानन्द। इ का अर्थ है अभीष्ट सिद्धि तथा व का अर्थ है बीज जिसमे अमृत छुपा है। शिव तत्व यद्यपि स्वयं में एक परम तत्व है किन्तु इसके बावजूद वह विनम्र है और राम को अपने गुरु के रूप में देखता है तो वहीं राम भी शिवत्व को अपने गुरु या इष्ट के रूप में स्वीकारते हैं। याने परम तत्वों का यह स्वाभाविक आचरण ही है। इससे ही परम तत्वों  को  एक दूसरे का प्रत्यक्ष स्वरुप कहा जा सकता है। बाह्य रूप में चाहे हम ब्रह्मा,विष्णु,महेश या शक्ति आदि के रूप में उनका भेद करते हों पर आतंरिक रूप में वो सभी हैं एक ही,"एकोहं द्वितीयोनास्ति" शिव का यही विनम्र भाव है जो वे रामजन्म से लेकर राम के राज्याभिषेक तक के समस्त प्रमुख कार्यों में कभी कागभुशुण्डि जी,कभी सती संग तो कभी अकेले ही रामचरितमानस में विराजमान दिखाई देते हैं ।

मानस कथानुसार लंकेश रावण शिव का पुजारी है और उन्हें अपना शीश चढ़ा विशिष्ट वरदान प्राप्त करने से अहंकारी हो जाता है।  पत्नी मंदोदरी को मगर राम के ईश्वरत्व का आभास हो जाने से वह उसे राम से युद्ध न करने की सलाह देती है यह कहकर कि "अहंकार सिव बुद्धि आज मन ससि चित्त महान।मनुज बास सचराचर रूप राम भगवान्। "(६/१५क ) यहाँ परमेश्वर का अहंकार शिव का स्वरूप है। याने कि शिव संपूर्ण सृष्टि के अहंकार हैं। अहम् की भावना ही अहंकार कहलाती है। अहम् सामान्यतः बुरा नहीं है क्योंकि  इसके चलते ही तो हम कर्म करने में समर्थ हैं और मैं (अहम्) कौन हूँ?मेरे जन्म का उद्देश्य क्या है ? ऐसी अनेक जिज्ञासाएं अहम् की वजह से ही उपज पाती हैं। अतः अहम् को वास्तविक रूप में समझ पाना ही शिवत्व है। रामकृष्ण परमहंस जी कहते थे की मैं समाधि अवस्था से वापस जो आ पाता हूँ तो अपने भीतर एक चाह,कचौड़ी खाने की चाह को अवचेतन में बनाये रखने की वजह से ही आ पता हूँ वरना तो समाधि अवस्था में परमानन्द है।  लेकिन ईश्वर द्वारा निर्देशित लौकिक कार्यों की पूर्ति हेतु व्यापक अवस्था से सीमित अहम् (मैं) तक मुझे उतारना पड़ता है। यह शिव तत्व को को समझने का प्रमुख सूत्र है।  शिवोहम,शिवोहम की जो भावना है वो तो अपने को "सीय राम मय सब जग जानि " के व्यापक दर्शन से ही वास्तविक रूप में प्रगट की जा सकती है। रावण अपना भौतिक सिर तो चढ़ा देता है किन्तु यह अर्पण का भाव उसमें १० सिर का बोझ और बढा देता है और व्यापक दर्शन से विलग होने से वह अपने को मात्र अपने "मैं " तक सीमित रखअधिक संकुचित,अधिक स्वार्थी और अधिक अत्याचारी हो जाता है।यही अहंकार एक बार नारद पर भी थोड़े समय चढ़ता है जब काम पर वो विजय प्राप्त कर लेते हैं और बड़े अहंकार से शिव को व्यंग करते हुए सुनते हैं क्योंकि शिव ने तो काम को क्रोध करते हुए भस्म कर दिया था और नारद का उद्देश्य था शिव को यह दिखाना कि आप तो क्रोध में आ जाते हो पर मैंने तो काम,क्रोध जीत लिए हैं.शिव इस पर यह प्रसंग विष्णु को न सुनाने की नेक सलाह देते हैं क्योंकि परमसत्ता को आप अपनी उपलब्धि क्या बांचोगे? जबकि समस्त सृष्टि का पत्ता-पत्ता भी उसके इशारे पर नाचता है। "सबहिं नचावत राम गौसाईं "लेकिन नारद शिव सलाह की अनदेखी करते हैं और "कामविजय" की अकड़ का अंत में विष्णु कृपा द्वारा मोहभंग होता है। 
     
श्रीरामचरितमानस में ऐसे ही अनेक प्रसंग हैं जिनसे जीवन की जटिल गुत्थियां सुलझती हैं। ऐसा ही एक प्रसंग है गरुण जी का। गरुण जी हैं तो विष्णु के प्रमुख पार्षद पर इतने निकट होते हुए भी विष्णु के रामावतार पर उन्हें संशय है। ऐसे में उन्हें कौन ज्ञान दे? सो संत (नारद) कृपा से वो शिव तक पहुंचते हैं। लेकिन शिव कुछ प्रमुख तथ्यों को सम्मुख रखते हुए उनसे कहते हैं कि तुम मार्ग में मुझे मिले हो तो ऐसे में संशय नष्ट करना कठिन है क्योंकि यह चलते-फिरते की बातचीत नहीं है। वैसे ही जैसे गंभीर रोगी सड़क पर चिकित्सक से सम्पूर्ण इलाज़ चाहे तो वह संभव नहीं है। अतः शिव "बहुकाल करिअ सतसंगा "की बात सुझाते हैं जिससे "जाइहिं  सुनत सकल संदेहा। रामचरन होइहिं अति नेहा।।" (१/६०/८) महादेव जो जगदगुरु हैं वह "रघुपति कृपां मरमु मैं पावा" से जानते हैं कि किसका-किससे ,कब और कहाँ कल्याण संभव या निर्धारित है। अतः "समुझइ खग खगही  कै भाखा।" के आधार पर शिव उन्हें कागश्री के पास भेजते हैं।  शिवत्व की यही विशेषता है की वह भीतर तह तक जाकर विश्लेषण उपरांत सटीक इलाज़ करता है। 

शिव श्रुतिमारग की मर्यादा रखने हेतु पुर्णरूपेण कटिबद्ध हैं यही कारण  है कागभुशुण्डि जब शुद्र रूप में अपने गुरु का अपमान करते हैं तो शिव उन्हें अत्यंत कठोर श्राप देते हैं। लेकिन वहीं करुणासागर आशुतोष होने से अपने भक्त (शुद्र व्यक्ति के गुरु) के अनुनय-विनय पर शुद्र को उसके परम कल्याण का मार्ग सुझाते हुए "छमासील जे पर उपकारी,ते द्विज मोहि प्रिय जथा खरारी"(१/१०८/५ )अर्थात "शिवेन सह मोदते"का सूत्र वाक्य भी दे जाते हैं।शिव के विषय में मानस में ऐसी ही एक अन्य कथा कामदेव की आती है। शिव-विवाह पश्चात शिव पुत्र तारकासुर का वध करेगा अतः देवता कामदेव को भेज कर विरागी शिव को "काम" मोहित करना चाहते हैं। कामदेव अनेक प्रयास करते हैं किन्तु अंत में स्वयं ही शिव कोप से भस्म हो जाते हैं।इससे हम कह सकते हैं कि कोमल,इंद्रधनुषी कामनाएं भी साधक के लिए खासतौर से साधना के दौरान त्याज्य हैं। अतः शिव ऐसे कारण को ही समूल नष्ट कर देते हैं। उनमें ऐसा साहस है,वीतरागिता है। आगे इसी प्रसंग में शिव को पाने के लिए साधनारत पार्वती की परीक्षा लेते सप्तऋषि भी उन्हें चिढाते हुए कहते हैं कि "काम" को तो शिव भस्म कर चुके हैं
अतः उनसे विवाह का प्रयोजन व्यर्थ है। ऐसे में शिवत्व में श्रद्धा अर्पित कर चुकी पार्वती भी सप्तऋषियों को खरी-खरी सुनाते हुए कहती हैं -"तुम्हरे जान काम अब जारा,अब लगि संभु रहे सबिकारा। हमरे जान सदा सिव जोगी,आज अनवद्य अकाम अभोगी" (१/८९/२-३) शिव तो राग-विराग से परे हैं,निष्काम हैं और इसी का सटीक उदाहरण देते हुए पार्वती कहती हैं कि जैसे अग्नि का सहज स्वाभाव है जला देना और उसमें वह विभेद नहीं करती वैसे ही महादेव हैं इसी स्वाभाव के चलते जब पार्वती अपने नूतन जन्म में भी पुनः त्रुटिवश शिव से राम के सन्दर्भ में हल्का संदेह व्यक्त करती हैं तो शिव दो टूक कह पाते हैं -"एक बात नहि मोहि सुहानी,जदपि मोह बस कहेहु भवानी। तुम्ह जो कहा राम कोउ आना,जेहि श्रुति धरहिं मुनि ध्याना।।(१/११३/७-८)  
    
अचल विश्वास की यही पराकाष्ठा है और ऐसे ही शिवत्व का जीव के भीतर उपजना परमब्रह्म परमेश्वर से साक्षात्कार का सौभाग्य दे पाता है। ऐसे अटल विश्वास पर स्वाभाविक ही परमब्रह्म परमेश्वर भी रीझ जाता है और अपना परम स्वरुप सहज ही प्रगट कर देता है। बिना सोलह आने विश्वास के रामानुराग नहीं उपजता और "मिलहिं न रघुपति बिन अनुरागा "यह तो परम सत्य है ही।

तुलसीदास जी कृत श्रीरामचरितमानस की परीक्षा हेतु काशी के शिव मंदिर में कुछ छुद्र सोच से पीड़ित पंडितों ने जब मानस को अन्य कई विशिष्ट ग्रंथों के सबसे नीचे रख दिया तो भी प्रातः काल मंदिर के कपाट खोलने पर श्री रामचरितमानस को सबसे ऊपर पाया गया। दरअसल विश्वास का शिव ही भगवान को सर्वोच्च आसन दिलाता है और प्रतिक्रिया स्वरुप भगवान भी जीव में शिवत्व की स्थापना हेतु सदैव तत्पर रहते हैं। शिवत्व की स्थापना से जीव भी "कर्पूरगौरं करुणावतारं" की तरह पारदर्शी,निर्मल,निश्छल,विश्वास युक्त हो जाता है।एक प्रसंग में नारद जी जो विवाह में मदद न किये जाने से मोहवश विष्णु को श्राप देते हैं और बाद में मोहभंग हो जाने पर अत्यंत लज्जित हो जाते हैं।उन्हें विष्णु भगवान् "जपहु जाइ संकर सत नामा।होइहिं हृदय तुरत बिश्रामा" (१/१३/५) द्वारा पश्चाताप की अग्नि से दग्ध मनःस्थिति के उपचार का मार्ग सुझाते हैं। साथ ही दृढ़तापूर्वक कहते हैं "कोउ नहिं सिव सामान प्रिय मोरें। असि परतीति तजहु जनि भोरें। (१/१३/६) क्योंकि निश्छलता,सहजता,सरलता तो शिवभाव में रहने से ही आती है।कबीरदास जी ऐसी ही स्थिति का वर्णन करते हुए कहते हैं -
             कबीरा मन निर्मल भया,जैसे गंगा नीर।
             हरि लागा पीछे फिरत,कहत कबीर कबीर। 
तो ऐसे शिवत्व के प्रगटीकरण से परमब्रह्म स्वयं जीव के अधीन हो जाता है। श्रीरामचरितमानस ग्रन्थ में शिव के बहाने ऐसी ही निष्ठा को साधक के मन-मन्दिर में उभारने का प्रयास किया गया है।और पूरी गंभीरता से शिव के इस मर्म को अलग-अलग भाव रूपों में अनेक प्रसंगों द्वारा पुष्ट किया गया है।अतः शिवत्व को उपजा,परमब्रह्म राम से साक्षात्कार की गाथा का ही यह सर्वसम्मानित,पूजित ग्रन्थ यशोगान करता है।
            प्रभु समरथ सर्बग्य सिव सकल कला गुन धाम।
            जोग ग्यान बैराग्य निधि प्रनत कलपतरु नाम।।(१/१०७)
  
 (हे प्रभो!आप समर्थ,सर्वज्ञ,और कल्याणस्वरूप हैं। सब कलाओं और गुणों के निधान हैं और योग,ज्ञान तथा वैराग्य के भण्डार हैं। आपका नाम शरणागतों के लिए कल्पवृक्ष है। 

                                     शिवार्पणमस्तु।।

         

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