Thursday, 10 April 2014

फिर भी लेकिन 

कितनी-कितनी पीड़ाओं में,रोज सिसकता मेरा मन।
फिर भी लेकिन स्वप्न को अपने,रोज बटोरे मेरा मन।।

कितनी-कितनी मरीचिकाओं में,रोज भटकता मेरा मन।
फिर भी लेकिन प्यास को अपनी,रोज बढ़ाए मेरा मन।।

कितनी-कितनी कुंठाओं में,रोज सहमता मेरा मन।
फिर भी लेकिन अधर को अपने,रोज खिलाए मेरा मन।।

कितनी-कितनी मायाओं में,रोज नहाता मेरा मन।
फिर भी लेकिन कोरेपन को अपने,रोज बचाए मेरा मन।।

कितनी-कितनी सीमाओं में,रोज सिमटता मेरा मन।
फिर भी लेकिन असीम को अपने,रोज निहारे मेरा मन।।
@नलिन #तारकेश

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