Saturday, 12 April 2014

ग़ज़ल - 25 लाश को तुम मेरी

लाश को तुम मेरी यूहीं पड़े रहने दो।
मारते हैं लात मरे पर तो मारने दो।।

शहर भी तो लोगों का कब्रिस्तान है।
हकीकत जरा सभी को ये समझने दो।।

फूंको न इसे लकड़ियों में रखकर इस तरह।
माहौल खुद जला देगा उसे सुलगने दो।। 

सूखा,अकड़ा ज़िस्म है उसूलों का बना।
हवा को भी जरा आज मस्त झूमने दो।। 

फैलाना तो होगा ही खुद्दारी को "उस्ताद "।
उड़ता फिरे शहर दर शहर तो इसे महकने दो।।  
   

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