Saturday, 19 April 2014

ग़ज़ल-9

बड़े अजीब मिज़ाज का लगे ये शहर अपना।
पता नहीं कौन रकीब कौन हमसफर अपना।। 

सबको दूजे पर आता है  इल्ज़ाम थोपना। 
खूँने दस्त तो है यारब हिना का असर अपना।। 

यूं तो चलन यहाँ भी है दुआ-सलाम का। 
करे जो है संग से काम बेहतर अपना।। 

हर शाख पे बोले उल्लू,छाया इस कदर अँधेरा।
पूछे मगर कोई तो कहना रौशन है शहर अपना।। 

शहरे-इमाम के लिए करती है हवा मुखबरी।
''उस्ताद'' लिखना गजल संभाल कलेवर अपना।।   

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