Wednesday, 16 April 2014

ग़ज़ल-5

फ़िर एक बार,ग़म की हद पार हो गयी।
ख़्वाबे उम्मीद,तार-तार हो गयी।।

जाने कब तक चलेगा ये सिलसिला।
लो पौ फटी नहीं, कि शिकार हो गयी।।

रोशनी-ए-दिलों की जगमगाती यारी।
देखते-देखते,बुझ के खार हो गयी।।

मुस्कुराना उनका,कनखियों से देख कर हमको।
बात छोटी मगर,तिल का ताड़ बेकार हो गयी।।

हाथ मिला कर नोच लेना, दिल किसी का।
बीमारी ये आम, बेशुमार हो गयी।

"उस्ताद"जिस पर तुम्हें गुरूर था बहुत।
कहें तो कैसे,उस्तादी वो बेजार हो गयी।।

 

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