Sunday, 13 April 2014

रो कर तुम्हें अब न पुकारूँ

राम सोचता  हुूँ मैं
रो कर तुम्हें अब न पुकारूँ
अश्रु  वेदना  भरे घट  से
चरण तुम्हारे अब न पखारूँ
तुम तो हो आनंद- सागर
विश्व के उदार-नायक
जी को तुम्हारे न जलाऊँ
खुद हँसू तुमको हँसाऊँ
अटपटे रस भरे बोल  से
तुम्हें सदा अब  मैं रिझाऊँ
अश्रु कण दरअसल नमकीन हैं
पर तुमको पसंद मधु अर्क है
पर करूँ क्या भगवन
मैं भी तो विवश हूँ
मुझे तो तुमसे मिली
यही कृपापूर्ण सौगात है
राम-तो अब करो कुछ ऐसा
तुम्हारा भी बन जाये काम
मेरा भी छूटे हर घडी का रोना
 खिल जाए "नलिन"मुख सलोना
मेरे दुःखों के उबलते सैलाब में
कृपा का अपनी मधु उड़ेलो
चाशनी जब एक तार की बने जब
पञ्चतत्वि देह तब मेरी डुबो दो
इस तरह से रोम-रोम में
पंचामृत का मेरे संचार होगा
नर जीवन जो दिया तुमने
उसका वास्तविक उद्धार होगा। 
    

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