Tuesday, 15 April 2014

ग़ज़ल-4

सबको पुकार के हूं थक गया बताने में।
रक़ीब कोई भी तो  नहीं मेरा इस ज़माने में।।

सोचा था भुलाने में उम्र कट जायेगी।
याद ही नहीं आ रहा कुछ भी भुलाने में।।

पुरानी शराब  जो दे,मस्त प्याले हंसी साकी।
चढ़े  सुरूर तभी तो जब हो तहज़ीब पिलाने में।।

मेले में दुनिया के क्या खूब अजूबे देखे हमने।
लगे सभी सोने चाँदी के बुत फकीर का मढाने में।।

गाली,संग*और नफ़रत भरी बरसातों में अक्सर।
डरे  "उस्ताद" तो गढ़े कैसे शागिर्द ज़माने में।।
*पत्थर

@नलिन #उस्ताद 

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