Friday, 12 May 2023

522: ग़ज़ल:गीताप्रेस शताब्दि वर्ष

रास्ते हजार भटक कर भी तेरे दर तक पहुंचना चाहता है।
आदमी वही लाखों में एक अपनी तकदीर लिख पाता है।।

जंगल,नदी,पहाड़ जाने कहाँ-कहाँ से बमुश्किल जैसे-तैसे।
पानी हर हाल समन्दर में मिल वजूद अपना मिटा देता है।।

वो बावला नहीं दरअसल बन्दा बहुत सयाना निकला।
खबर उसे पूरी है ज़िन्दगी को अपनी कैसे संवारना है।।

सबकी नेकी की खातिर जीवन उसने अपना खपा दिया।
सो जितना भी बन पड़े हमसे साथ उसका तो निभाना है।।

"उस्ताद" ये ज़िन्दगी का दौर नरम-गरम ऐसे ही चलेगा।
हमें तो बस बिना किसी तानों,शिकायतों के इसे गुजारना है।

नलिनतारकेश@उस्ताद। 


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