Wednesday, 18 December 2019

मीरा की भक्ति

पग नूपुर बांध मीरा जो जीवन-पर्यंत मगन भाव से नाची थी।
कृष्ण पर यही तो उसकी अपरिमित,अटूट-अमर निष्ठा थी।
उसकी राह वरना कहो तो क्या कुछ कम रपटीली थी।
हजारों झंझावतों भरी जिंदगी उसकी कंटकाकीर्ण थी।
मगर वह तो कृष्ण-कृष्ण कहते इतनी भाव-विभोर थी।उसे कहाँ फिर जरा देह,मन,बुद्धि,चित्त की सुध-बुध थी।
देह में रहते हुए भी वह असल में देहातीत ही हो गई थी।आत्म रूप से वह अपने प्रीतम के प्रेम पाग में पगी थी।
आठों याम उसकी धड़कनों में सांवले की बंसी बजी थी। अनुराग के मोर-पंख फैलाए,नाचती-कूकती फिरती थी।हाथों में इकतारा,खड़ताल लिए रसधार सी बरसती थी।
विष भी तो वह सहज,सरल सुधा-प्रसाद समझ पीती थी। गली-गली मतवाली वो तो बांवली गोपी बनी फिरती थी। कृष्ण-तत्व को जो बुझ सकी वह तो सच में अलबेली थी।
सदेह समा गई कृष्ण में ये बस अद्भुत मीरा की भक्ति थी।

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