Tuesday, 17 December 2019

291:गजल:मज़े में कश्ती

मजे में कश्ती हमारी भरोसे राम के चल रही है।
बेवजह ये बात जाने क्यों लोगों को खल रही है।।
यूँ कहने की आदत मुँह-देखी हमारी रही नहीं।
जो कही खरी-खरी तो नाराजगी उबल रही है।।
रात है या सुबह कुछ खबर न रही अब तो।
पाने की तुझे मौज इस कदर मचल रही है।।
कुछ होते रहें सवाब*हमारे हाथों से भी बस।*पुण्य 
वरना तो ये जिन्दगी हर हाल फिसल रही है।।
बेजान थी जो हमारी दुनिया ना उम्मीदी की हद तक।
आहट से मगर उसकी देखो अब ये भी बदल रही है।।
हकीकी*इश्क में"उस्ताद"खामोश हो गया।*ईश्वरीय
तसदीक* को दिले जज़्बात बस ये ग़ज़ल रही है।।*सत्यापन 
@नलिन#उस्ताद

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