Monday, 9 December 2019

287: गजल-खुद से ही

खुद से ही हम तो बतियाते रहे।
मजमून* ग़ज़ल का यूं पाते रहे।।*विषय
दिया है खजाना बेशुमार उसने भीतर। 
डूब के हम तो गहरे बस निकालते रहे।।
ऐसे तो कभी कोई सुनता नहीं हमारी।
सो बिना चूके हम अशआर* सुनाते रहे।*शेर का बहुवचन 
जाड़ों में धूप बमुश्किल है मिलती। 
सो फुर्सत निकाल बस सेकते रहे।।
कहा तो कुछ नहीं उसने हमसे मगर।
दिन के उजाले भी ख्वाब सजाते रहे।।
यूँ खाए तो बहुत धोखे हमने करीब से।
हर कदम फिर भी हंस के ही मिलते रहे।।
अंधेरा है बहुत ये कहने के बजाए।
बस "उस्ताद" हम चराग जलते रहे।।
@नलिन#उस्ताद

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