Monday, 29 September 2014

232 - तुम्हारा  दिव्य रूप



तुम्हारा  दिव्य रूप  देखने की
प्रभु साध है मेरी बहुत पुरानी।
मंत्रमुग्ध जिस पर सृष्टि सारी
वही सगुन रूप की चाह मेरी।
नाम से ही जब है धड़कन धड़कती
फिर होगे सम्मुख तो क्या बात होगी।
रोम-रोम खिलता है आँख बहती
जाने क़ैसी प्रेम ने काया पलट दी।
शिव उर धाम बसती जो बाल छवि
राम उसी रूप की लौ मुझको लगी।
अब तो यही बस एक चाह रह गयी
शीघ्र दर्शन दो अथवा बहुत देर होगी।

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