Thursday, 18 September 2014

225 - ग़ज़ल-39

भलमनसाहत का बेवज़ह मखौल उड़ाते क्यों हो
पीठ न थपथपाओ,मगर सरेआम चिढ़ाते क्यों हो। 

बहुत दूर तलक चलोगे तब मिलेगी मंजिल तुम्हें 
दो कदम में फकत ए दोस्त हौसला हारते क्यों हो। 

वो महबूब हो,दुश्मन हो या कोई भी हो तुम्हारा 
आपसी रिश्तों को भला बेवजह उलझाते क्यों हो। 

नफरत ही जो भरे दिलों में,प्यार न जानता हो 
भला "उस्ताद"  तुम उसे अपना बनाते क्यों हो। 

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